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Yatharth Sandesh
14 Jul, 2022(Hindi)
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धर्म के नाम पर भ्रमित समाज

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धर्म के नाम पर भ्रमित समाज
(सम्पूर्ण मानवजाति का धर्म एक है, परंपराओं को धर्म मानना भूल है।)
आज धर्म भारत का ही नहीं अपितु विश्व का उलझा हुआ प्रश्न है, वस्तुतः विश्व की सभी समस्याओं के मूल में कहीं न कहीं धर्म का नाम लिया जाता है। जिसने जहां जिस परंपरा में जन्म लिया, जीवन पर्यन्त उन्हीं परंपराओं को धर्म मानकर उनका पालन किया, लेकिन धर्म के मूल रूप से वंचित रहने के कारण हम उन वैदिक सूत्रों को चरितार्थ नहीं कर पाये ‘यतो धर्मस्ततो जयः’, ‘धर्मो रक्षति रक्षतः’ और अपने अमूल्य जीवन को दुःख एवं समस्याओं से सदैव घिरा पाया। धर्म के नाम पर प्राण-प्रण से लगने के बाद भी हमारी जय नहीं हुई, हमारे जीवन की रक्षा नहीं हुई। 1976 में 42 वें संविधान संशोधन में, संविधान की प्रस्तावना में सेक्यूलर शब्द जोड़ा गया जिसे हिंदी में धर्म निरपेक्ष कहा गया। इस शब्द ने आज न्यायपालिका, कार्यपालिका और सम्पूर्ण समाज को भ्रमित कर रखा है और समाज के लिए अनवरत संघर्ष एवं राग-द्वेष का मार्ग खोल दिया है। जब धर्म सार्वभौमिक सत्य है तो उसके सापेक्ष कुछ नहीं हो सकता वह निरपेक्ष कैसे हो सकता है। सनातन को मानने वाले लोग सहिष्णुता में विश्वास रखते हैं जो सभी परंपराओं और समुदायों को उनकी आस्था के अनुसार आराधना करने की आज़ादी देता है। एक परिवार में चार भाई हैं तो उनकी पूजा पद्धति अलग हो सकती है ईश्वर तो एक ही रहेंगे। यही सेकुलरिज्म की अवधारणा है जो भारतीय दर्शन 'वसुधैव कुटुंबकम' से ली गई है लेकिन जो केवल अपने को ही श्रेष्ठ कहते हैं, केवल उनकी परंपरा और आदर्श ही सर्वोपरि हैं ऐसा कहने वाले असहिष्णु लोग कभी सेकुलर नहीं हो सकते। मूल रूप से धर्म की सही व्याख्या संत महापुरूषों और शास्त्रों से लेनी चाहिए जो उसके वास्तविक ज्ञाता हैं।
धर्म के नाम पर पृथ्वीराज चैहान ने मानसिंह के साथ बैठकर भोजन नहीं किया, घास की रोटी खाना स्वीकार किया, धर्म की रक्षा के लिए संत ज्ञानेश्वर के माता-पिता ने आत्महत्या की। धर्म के नाम पर 1947 में देश विखंडित हो गया, धर्म की आढ़ में कश्मीर में नरसंहार हुऐ मजबूरन लाखों वहां के मूल निवासियों को कश्मीर से पलायन करना पड़ा। आज भी लोग धर्म के नाम पर अपनी राजनीतिक संस्था बनाकर वोट बेंक की राजनीति करते हुऐ समाज में संकीर्णता और वैमनस्य की जड़ें ही मजबूत कर रहे हैं। उनसे पूछा जाये कि अभी रांची में प्रदर्शनों में दो व्यक्तियों को अपना जीवन गंवाना पड़ा उसका जिम्मेदार कौन है? उदयपुर और अमरावती में निसृंश हत्या भी धर्म के नाम पर की गई। धर्म के नाम पर जिस सिद्वांत को अपनाकर लोगों ने क्रूरता का मार्ग अपनाया क्या वह धर्म है? धर्म को मूल रूप से समझकर ही संपूर्ण मानवता को संकीर्ण मानसिकता और वैमनस्यता से छुटकारा दिलाया जा सकता है।
प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी परंपरा में जन्म लेता है देश, काल और परिस्थित के अनुसार परंपराऐं अपने आप बदलती रहती हैं। जैसे कभी भारत में छुआछूत, सती प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह आदि विकृतियां लोगों को धर्म के नाम पर थोपी गई मजबूरियां थीं जो आज अपराध की श्रेणी में आती हैं। लेकिन जो सिद्धांत सत्य पर आधारित होते हैं, मानव कल्याण के निमित्त होते हैं वह स्थायी होते हैं। जो सनातन है वह ही सत्य है और उस पर आधारित सिद्धांत ही धर्म का मूल हैं। जिनके आधार पर सभी धर्मशाष्त्रों की रचना हुई। गोस्वामी जी ने कहा ‘धर्म न दूसर सत्य समाना, आगम निगम पुरान बखाना’, ‘व्यापक एक बृह्म अविनाशी सत चेतन घन आनंद राशि’ अगर धर्मशास्त्रों से ईश्वर की चर्चा निकाल दी जाये तो क्या आप उसे धर्मशास्त्र कहेंगे? अतः सिद्ध है कि ईश्वर ही धर्म है। परंपराऐं मनुष्य को तोड़ती हैं जबकि धर्म मनुष्य को जोड़ता है आज परंपराओं को धर्म समझने के कारण धर्म के वास्तविक रूप से समाज दूर हो गया है अपनी अलग पहचान बनाने की भावना समाज में द्वेष का कारण बन रही है जिससे समाज में सोहार्द और प्रेम का वातावरण खो रहा है।
विश्व को धर्म की राह देने के कारण ही भारत विश्वगुरू कहलाया आज उसी धर्म की अनभिज्ञता के कारण भाई को भाई से दूर कर लड़ा दिया गया। इतनी बड़ी क्षति होने के बाद भी लोग धर्म को समझने का प्रयास नहीं करते कह देते हैं कि हम धर्म निरपेक्ष हैं। सृस्टि में कोई धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता क्योकि धर्म तो एक है। आज से सौ साल पूर्व की परांपरा, रहन-सहन, खान-पान को वर्तमान का समाज स्वीकार नहीं करेगा। परंपराऐं तात्सामयिक होती हैं यह समय के साथ बदलती रहती हैं। धर्म जिसको केवल पवित्र अंतःकरण द्वारा जाना जा सकता है जिसका हृदय पूर्ण पवित्र विचारों से भर गया जहां लेशमात्र भी कालिमा नहीं है स्फटिक मणि के सदृश, वह पूर्ण धार्मिक हो गया। ‘ क्षीणे वृत्तेरभिजातस्येव मणेग्रहीतृहणग्राह्येषु तत्स्थतदंज्जनता समापत्ति'(योग दर्शन 1/41)
जैसे किसी धोखेबाज को लोग कहते हैं बेईमान अर्थात बे-ईमान और इसी प्रकार ‘मुसल्लम-ईमान’ मुसल्लम का अर्थ है पूरा का पूरा। पूरा का पूरा धार्मिक व्यक्ति उसमें जरा भी त्रुटि नहीं वह महापुरूष की स्थित प्राप्त कर लेता है। उसके मुख से निकली हुई बात आयत बन जाती है वह खुदा की आवाज ही प्रसारित करता है जो शून्य या आकाश से प्रसारित है उसके पैगाम को अम्बर से लाने वाला पैगम्बर कहलाता है। ‘पैगाम लाऐ जो अम्बर से’ ऐसे पूर्ण धार्मिक व्यक्ति का पुर्नजन्म नहीं होता। यह गीता का ही सिद्धांत है।
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते गते।।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः।। (गीता, 8/26)
‘मामुपेत्य तु कोन्तये पुनर्जन्म न विद्यते’ (गीता, 8/16)
(अज्ञान रूपी कालिमा का पूर्ण त्याग होने पर ज्ञान प्रकाश रूपी धवलता को प्राप्त ‘अनावृति’ को प्राप्त होता है।)
जो प्रार्थना मुसलमान करते हैं 'ला-इलाहा इल्लल्लाह् = नहीं कोई पूज्य सिवाय एकेश्वर के, मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह् = मुहम्मद प्रेषित हैं एकेश्वर के। यही प्रार्थना हिंदू भी करते हैं 'तुम बिन और न दूजा , आश करूं किसकी, ओम् जय जगदीश हरे।' जो सबके अंदर विद्द्मान् है, सारे जगत का ईश्वर केवल वही आश करने योग्य है। दोनों एकेश्वरवाद की ही बात कहते हैं जो भारतीय दर्शन गीता का ही सिद्धांत है। 'ममेवांशो जीवलोके जीवभूत सनातन:' ।
क्या धर्म के मार्ग पर आरूढ़ ऐसा व्यक्ति धर्म के नाम पर किसी पर पत्थर फेंक कर और गला काटकर हिंसा कर सकता है वह भी खुदा की इबादत के तुरंत बाद? धार्मिक व्यक्ति चाहते हुऐ भी भेदभाव, कटुता एवं कपट का व्यवहार नहीं कर सकता। धार्मिक व्यक्ति हिंसक नहीं हो सकता, यह दोनों बात एक साथ नहीं रह सकतीं। यदि धर्म की परिभाषा हिंसा, अराजकता, लूटपाट तथा एक दूसरे के अधिकारों को छीनकर परेशान करना है, तो अधर्म की परिभाषा क्या होगी? धार्मिक व्यक्ति सम्पूर्ण दुर्गणों से दूर होता है। धर्म विश्वबन्धुत्व की भावना जागृत करता है, वह भेदभाव, अपने-पराये, उँच-नीच, की संकीर्णताओं से दूर रखता है। सम्पूर्ण सृस्टि का मानव एक है, आदम से पैदा होने के कारण आदमी कहलाए, मनु से पैदा होने के कारण मनुष्य कहलाए, सबका उद्गम एवं धर्म एक है। उद्गम परमात्मा है एवं उसे जानकर उस पर चलना धर्म है। महापुरूष माध्यम हैं जिनसे धर्म को प्राप्त कर पशुवत जीवन से निकलकर तनाव रहित उच्चादर्श जीवन प्राप्त होता है। आदि शंकराचार्य जी ने कहा- ‘पशो पशुं करोति, यो न जानति धर्मः’
सम्पूर्ण सृष्टि का ईश्वर एक है इसलिए सम्पूर्ण मानव जाति का धर्म एक है उसे ईश्वर पुकारो या अल्लाह देने वाला एक ही है पानी कहो या वाॅटर या आब वस्तु एक ही मिलेगी। धर्म अनादिकाल से एक था जब तक सृष्टि रहेगी तब तक धर्म एक ही रहेगा। सृष्टि के न रहने पर भी धर्म रहेगा। ‘धारयति इति सः धर्मः’ जो सबको धारण वही धर्म है वह केवल एक परमात्मा है जो सम्पूर्ण विश्व को धारण करता है।
इतना स्पष्ट होने के बाद भी क्षणिक लाभ एवं स्वार्थवश प्रतिनिधि धर्म को राजनीतिक रंग देकर समाज को दिशा विहीन करके मानव जाति के बीच संघर्ष को पैदा करके अपनी कुर्सी सुरक्षित रखने का कुप्रयास करते रहते हैं। यह कुर्सी सदैव नहीे रहेगी उन्हें विचार करना चाहिए जब यह शरीर भी साथ नहीे रहेगा तो मानवजाति के बीच मतभेद और वैमनस्यता के बीज बोने वाले व्यक्ति का शासन कब तक रहेगा। धर्म पर चलने वाले प्रतिनिधियों ने लोगों के हृदयों पर शासन किया है इसलिए आज भी लोग उन्हें श्रद्धा से याद करते हैं।
किसी महापुरूष के प्रति अश्रद्धा के भाव आने पर उस व्यक्ति की ईश्वर से दूरी हो जाती है। अहंकारवश, घमंड, कामना और क्रोध के परायण उन निन्दा एवं द्वेष करने वाले पुरूषों को अशुभ और अधम कहा, जिनकी गति बार-बार आुसरी योनियां हैं।
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।। (गीता 16, 18)
तानहं द्विषतरू क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।।(गीता 16, 19)
हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि संसार की कोई भी उपलब्धि एवं वेशभूषा जीवन को दुख-दुर्बलता एवं तबाही से नहीं बचा सकती है न सोचा हुआ जीवन दे सकती है। हमारी बातों से, रहने-सहन से दूसरों को कष्ट तो नहीं होता इस बात का ध्यान रखने वाला परमात्मा एवं समाज की अनुकूलता प्राप्त करता है। सभी धर्मशास्त्र जगे हुऐ पुरूषों का इतिहास है, ईश्वर का अपने भक्तो को दिया हुआ प्रेम पत्र है। हमें उसमें निहित तत्व को अपने जीवन में ढालने का प्रयास ही हमें धर्म के मार्ग पर ले जा सकता है। कुरान में स्पष्ट है- ‘‘ हे ईमान लाने वालो! ईमान लाओ! अल्लाह पर और उसके रसूल पर उस किताब पर जो उसने अपने रसूल पर उतारी है और उस किताब पर जो उससे पहले उतार चुका है और जिस किसी ने अल्लाह, उसके फरिश्तों और किताबों और उसके रसूलों को और अंतिक दिन का इन्कार किया, वह भटककर बहुत दूर जा पड़ा। (अलमिसा 136 पारा 5)
‘‘अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपालु और अत्यंत दयावान है’’ (सूर: अल फातिहा 1)
सम्पूर्ण सृष्टि का पालनहार वह परमात्मा दयावान है, यह सभी शास्त्रों का मत है हम उसी का नाम लेकर हिंसा कर रहे हैं अल्लाह या गाॅड किसी भी नाम से पुकारो वह एक है अतः सम्पूर्ण मानव जाति का धर्म एक है इस सत्य को दुनियां के सभी महापुरूषों ने स्वीकार किया है। गीता में जिस धर्म सिद्धांत की पुनरावर्ति 5000 वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण ने की, उसी सत्य को 2500 वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध ने, 2000 वर्ष पूर्व ईसा मसीह ने तथा 1500 वर्ष पूर्व मोहम्मद साहब ने दोहराया किसी ने भी यह नहीं कहा ईश्वर दो हैं। ‘‘ममैवांसो जीवलोके जीवभूत सनातनः’’
स्थान एवं जलवायु भेद से परम्पराये अनेक हैं इनकी पैरबी तथा सुरक्षा में उठाया गया कदम मनुष्यों की विद्वता एवं दूरदर्शिता को स्पष्ट करता है। क्योंकि विश्व की कोई भी परंपरा स्थाई नहीं है धर्म स्थाई है, स्थिर है, व्यापक है शाश्वत है तथा सनातन है। जो नश्वर है उसे बनाऐ रखने के लिए रक्तपात का या किसी प्रकार का षडयंत्र का सहारा लेना कितना उचित है, कितनी समझदारी है इनके लिए अपने आपको पक्ष-विपक्ष एवं निरपेक्ष सीमाओं में बांधना कहाँ तक उचित है, कितनी बुद्धिमानी है? सत्य से अनभिज्ञ समाज को हमेशा के लिए भ्रमित नहीं किया जा सकता है। वास्तविकता से परिचित होने पर क्या समाज हमें एवं हमारी संतति को कभी क्षमा कर पायेगा?
हमने आज नासमझ और संकीर्ण मानसिकतावश महापुरूषों को भी अपने पराये में बांट लिया ये मेरा वो तेरा, यह मेरे महापुरूष को सिद्वांत वह तेरे महापुरूष का सिद्धांत जबकि अनादिकाल से विश्व में हुऐ सभी महापुरूषों का धर्मसिद्धांत एक है किसी ने भी दो बात नहीं की लेकिन भाषांतर और समझ के अनुसार यह पृथक-पृथक प्रतीत होते हैं। आज लोग उन महापुरूषों के जीवन में भी हम बुराइयां खोजने लगते हैं। सेंकड़ों वर्ष पहले घटी घटना पर भी सभी विद्वान एकमत नहीं हैं, उस समय क्या और कैसी परिस्थिति थी वह भी कल्पना से परे है, परंतु हमें विरोध की दीवार खड़ी करके अपने लिए कुछ वोटों की जुगाड़ करनी है
किसी भी महापुरूष ने कभी किसी अन्य महापुरूष के सिद्धांत को नहीं काटा, काट भी नहीं सकता क्योंकि सभी ने एक ही रास्ते पर चलकर अपने अन्दर उस सत्य की अनुभूति प्राप्त की। संसार के सभी महापुरूषों का एक ही संदेश तथा उद्देश्य था है और रहेगा कि संसार के दुःखों से सर्वथा छुटकारा प्राप्त करना जो ईश्वर दर्शन के साथ ही सम्भव है। मन की पूर्ण निरोधावस्था में संस्कारों के पूर्ण निर्मूलन के साथ दर्शन और विलय। क्या मन के निरोध की प्रक्रिया हिंदू, मुस्लिम और ईसाई के लिए अलग-अलग है? इस सिद्धांत का विरोध करने वाला कभी मानवजाति का शुभचिंतक नहीं हो सकता।
आदि शंकराचार्य ने कहा ‘‘अयं तु परमोधर्मः यद्योगेनात्मदर्शनः’’ योग के माध्यम से ईश्वर का दर्शन ही परम धर्म है और इस धर्म का पालन नहीं करने वाला समस्त शास्त्रों को जानने के बाद भी पशुओं से बढ़कर पशु है क्योंकि वह पशुओं की भांति भोगों मे रहते हुऐ मात्र आयु के दिन पूरे कर रहा है। महर्षि पतंजलि ने भी योग सूत्रों के मध्यम से कहा ' सर्वार्थतैकाग्रतयो: क्षयोदयौ चितस्य समाधिपरिणाम:', एतेन् भूतेन्द्र्येषु धर्मलक्षणावस्था परिणामा व्याख्याता:' अर्थात समाधि परिणाम धर्म का लक्षण है। महापुरूषों के नाम पर संगठन बनाकर इन्हें धर्म का नाम दे दिया गया यही से समाज भ्रमित हो गया और लोग वास्तविक धर्म से दूर होने लगे। विश्व में महापुरूषों की आढ़ में जितने भी समुदाय हैं, संगठन हैं कोई सुखी होने की गारंटी नहीं दे सकता, वे केवल परंपराओं की लकीर पीट रहे हैं और उन परंपराओं का जीवन भर पालन करने के बाद भी दुःख विद्यमान है। जर्रे-जर्रे में खुदा है, कण-कण में भगवान है तो निन्दा किसकी करते हो? प्रत्येक प्रतिनिधि का दायित्व है कि भेद-भाव की संकीर्णता से समाज को मुक्त कराये क्योंकि महापुरूषों के मूल धर्म सिद्धांतो पर चलकर आत्मिक विकास एवं शाश्वत शांति प्राप्त की जा सकती है। मोहम्मद साहब ने कहा - ‘जिस बन्दे का एक भी स्वांस बगैर नाम के खाली जाता है उससे खुदा कयामत के दिन उसी तरह सवाल करता है जैसे पापी से जिसकी सजा है हमेशा-हमेशा के लिए दोजख अर्थात खुदा(भगवान, गाॅड) को हर श्वांस में याद रखना ही धर्म है।’
श्वांस-श्वांस में राम कह, वृथा श्वास जन खोय।
न जाने इस श्वांस का, आवन होय न होय।।
धर्म विनम्रता पैदा करता है, राग-द्वेष से दूर रखता है, मनुष्यों को भेदभाव जनित जाति, समूह, समुदाय मजहब और परंपराओं में नहीं बांधता। रिलीजन व धर्म दो अलग शब्द है। AIR 1996 SC 1765 ए.एस. नारायन बनाम स्टेट ऑफ आन्ध्र प्रदेश के अनुसार रिलीजन व धर्म दो अलग शब्द है। -‘‘अनुच्छेद 25 और 26 में प्रयुक्त शब्द ‘रिलीजन’ और ‘धर्म’ में अंतर है। मै इस अंतर को अपने अनुसार दर्ज करना चाहता हूँ कि हमारे संविधान निर्माताओं ने इन दो आर्टिकिल में ‘रिलीजन’ शब्द का इस्तेमाल ‘धर्म’ शब्द के अर्थ में किया था।’’
सृष्टि में ईश्वर एक हैं और उसे प्राप्त करने की विधि भी एक ही है। आरम्भ में प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति की ओर उन्मुख है, भगवान विस्मृत रहते हैं। उस समय वह आसुरी सम्पद् से संचालित है। प्रकृति की ओर से भगवान की ओर उन्मुख होने पर दैवी सम्पद् क्रियाशील हो उठती है। जब वह इष्टोन्मुखी होता है तो उसे धारण करने की विधि एक ही है। इन्द्रियों का संयम किसी का आरम्भिक स्तर का होगा, किसी का मध्यम स्तर का होगा, किसी का उन्नत, कोई प्राप्ति के समीप होगा, तो कोई प्राप्ति वाला होगा। सतर ऊँचा-नीचा हो सकता है किन्तु साधना दो-चार नहीं होती इसलिए अनेक धर्म या सम्प्रदायों का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
मीमांसाकार जैमिनि कहते हैं कि - ‘चोदना लक्षणो धर्मः।’ ईश्वरीय आदेशों का पालन ही धर्म का लक्षण है। अर्थात् जब तक हृदय से रथी होकर वह निर्देष ने देने लगे और उसके अनुसार हम चलना आरम्भ न कर दें, तब तक सही मात्रा में धर्म के लक्षण प्रगट ही नहीं हुए।
‘वैशेषिक दर्शन’ में महर्षि कणाद कहते हैं- ‘यतोऽभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्म’ जिसके द्वारा जीवन की हर परिस्थिति में सर्वांगीण विकास हो तथा जो निःश्रेयस परमश्रेय की प्राप्ति करा दे, वही धर्म है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार- अपने स्वभाव की क्षमता से नियत कर्म (यज्ञ की प्रक्रिया) का आचरण धर्माचरण है। आत्मा जिस विधि से विदित होती है, उस विधि को क्रियान्वित करते रहना धर्म का आचरण है। श्रीकृष्ण कहते हें कि यदि तुम्हारी बुद्धि इसे क्रियान्वित करने में सक्षम न हो तो सारे धर्मों की चिन्ता छोड़कर एक मेरी शरण में आ जाओ, एक ईश्वर की शरण- यही है धर्म।
भगवान बुद्ध ने बताया कि सम्यक् वाणी, सम्यक् दृष्टि, सम्यक् जीविका, सम्यक् कर्म, सम्यक् संकल्प, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि का जो भली प्रकार आचरण करता है वह परिनिर्वाण को पा जाता है।
महाराज मनु ने धर्म के दस लक्षण बताए- धृति, क्षमा, दम, अजेय, शोध, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध। एक स्थान पर कहते हैं- ‘विद्धद्भिः सेवतिः पन्था नित्यमद्धेषरागभिः हृदयेनाभनुज्ञात यो धर्मः....।।’ विद्धानों ने राग-द्वेष रहित हृदय से जिसे प्राप्त किया, उस नित्य पथ का सेवन धर्म है।
रहन-सहन, आचार-विचार, वेश-भूषा, भाषा दो हो सकते हैं; किन्तु साधना दो नहीं हैं। क्योंकि हैं सभी अविनाशी कल्याण तत्व की ओर ही बढ़ने वाले, एक ही वस्तु के उपासक। जैसे कपड़े की पचासों दुकानों हैं लेकिन सबके साइन बोर्ड, सबके ट्रेडमार्क अलग-अलग हैं; किन्तु प्रत्येक दुकान में वस्त्र ही मिलेगा। ठीक उसी प्रकार समस्त सम्प्रदायों में एक ही अविनाशी सत्य की शोध है। ये चिन्ह गुरूघरानों के हैं। किसी महापुरूष की शिष्य परम्परा में जब संख्या बढ़ जाती है तो वही मजहब या सम्प्रदाय बन जाता है। सभी सम्प्रदायों में आराध्य एक है। जो सर्वत्र व्याप्त है- यह अविनाशी तत्व एक ही हैं। उसे खोजने का तरीका है महापुरूषों का सानिध्य जो परमात्मा के रसूल हैं, ईश्वर के दूत हैं, तत्वदर्शी हैं, परमतत्व परमात्मा के तद्रूप अनुभूति वाले हैं। अतः ईश निन्दा के नाम पर कुछ कुर्सी के स्वार्थी लोग मेरा रसूल तेरा रसूल कर समाज को भ्रमित करते है, जब सम्पूर्ण सृष्टि का नियंता एक ही है तो इसमें मेरा और तेरा क्या है अगर आप किसी की भी निन्दा करते हो तो अपने हृदय में स्थित ईश्वर से दूरी पैदा करते हो। आश्चर्य तो तब होता है जब भारत की सर्वोच्च न्यायालय भी देश के नागरिकों को सुरक्षा देने के बजाय अधर्मियों को हमले करने के लिए मौका दे रही है।
जो समाज में धर्म के नाम पर हिंसा और भय का वातावरण पैदा कर रहे हैं, हमें उन लोगों की मानसिकता को समझना होगा कि वे लोग किन कारणों से प्रेरित है। यह अभी लक्षण है रोग को फैलने से रोकने के लिए इस की जड़ पर प्रहार करना होगा। वास्तव में हमने अपनी शिक्षा से धर्म के मूल सिद्धांतों को खो दिया है, जब तक धर्म सिद्वांत हमारी शिक्षा प्रणाली का हिस्सा नहीं बनेंगें मात्र कानून बनाकर लोगों को सुरक्षित नहीं किया जा सकता। हमें लोगों को धार्मिक बनाना है उन्हें धर्म का सही मार्ग देना है तभी अधर्म के मार्ग से बचाया जा सकता है। धार्मिक व्यक्ति कभी हिंसक नहीं हो सकता अन्यथा उदयपुर और अमरावती जैसी बर्बरता की पुनरावर्ति होती रहेगी। इसके लिए सभी मनुष्यों को एक सूत्र में पिरोने वाली भगवद् गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर राष्ट्रीय स्तर पर शैक्षणिक पाठ्यक्रम में सभी स्तर पर सम्मिलित करना होगा। देववन्द के मौलवी का यह बयान कि हमारे यहां कुरान के साथ गीता भी रखी है तभी सार्थक होगा जब गीता को भी वहां पढ़ाया जाये क्योंकि यह खुदा की पहली आवाज है जिसको भगवान कृष्ण ने 5000 वर्ष पूर्व पुनः दोहराया था जिस समय पृथ्वी पर आज के प्रचलित कोई भी समुदाय नहीं थे।
लगभग 5000 वर्ष पूर्व प्रसारित श्रीमद्भगवद्गीता विशुद्ध मानव धर्मशास्त्र है, जिसमें किसी जातिगत और सामुदायिक संकीर्णता का कोई स्थान नहीं है और भारत की सांस्कृतिक धरोहर है जो सम्पूर्ण विश्व को एक सूत्र में पिरोती है। 30 अगस्त 2007 न्यायमूर्ति इलाहबाद उच्च न्यायालय के मा0 न्यायमूर्ति श्री एस.एन. श्रीवास्तव का एक फैसला प्रासंगिक है जिसमें उन्होंने कहा ‘‘भारत के संविधान के अनुच्छेद 51-ए(बी) और (एफ) के तहत भगवद गीता और उसके सिद्धांत भिन्न-भिन्न विचारधाराओं को संयोजित करने वाले धर्म सिद्धांत है, भगवद् गीता के महान आदर्श सिद्धांतो को संजोना और पालन करना प्रत्येक नागरिक और समग्र रूप से राज्य का मौलिक कर्तव्य है और इस प्रकार हमारी समृद्ध विरासत की रक्षा करना भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है’’ भगवान कृष्ण ने कहा ‘‘सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रजः’’
मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारा और गिरजाघर- सभी परमात्मा के प्रार्थना स्थल हैं। यह ईश्वरीय दरबार हैं, परमात्म तत्व की शिक्षा-स्थलियाँ हैं, ईश्वरीय पाठशालायें हैं। यदि इन स्थलों पर यह नहीं बताया जाता कि ईश्वर क्या है, कहाँ रहता है और उसे प्राप्त करने का तरीका क्या है? तो उसकी स्थापना का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। ऐसी स्थलियाँ कालान्तर में धर्म के नाम पर किसी धोखे को ही जन्म देंगी। जिन स्थलियों मे उक्त प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत नहीं किया जाता, वे ऐसी पाठशालाओं के समान है जिनमें पढ़ाई नहीं होती। केवल पूजा कराने और प्रसाद बाँटने-वाले मन्दिर अपने महान उद्देश्य से दूर हट सकते हैं। भेदभाव की दीवार खड़ी करके अपनी जीविका चलाने वाले लोग सनातन को नहीं जानते, धर्म जानते ही नहीं क्योंकि धर्म का यथार्थ नाम ही सनातन है।
यथार्थ गीता के प्रणेता परमहंस स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी महाराज का यह कथन प्रासंगिक है ‘‘भारत राष्ट्र की आत्मा धर्म है। यह धर्म सनातन धर्म कहा जाता है। सनातन धर्म भारत का राष्ट्रीय धर्म है जिस पर आघात होते रहे हैं। सनातन का अर्थ है, जो शाश्वत है अथवा जो अनादि और अनन्त है। सनातन धर्म का सार यह है कि सारे विश्व में एक ही शाश्वत सत्य है जिसे वेदान्त या उपनिषदों ने ब्रह्म कहा है। यही ब्रह्म परमसत्य है। यह विश्व ब्रह्माण्ड उसी ब्रह्म से निकला है और उसी में विलीन हो जाता है। यह क्रम सृष्टि और प्रलय कहा जाता है। मनुष्य-योनि इस ब्रह्म को अनुभव करने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है।’’ सभी धार्मिक भ्रांतियों एवं समस्याओं का समाधान गीता है अतः धर्म की विस्तृत एवं यथार्थ व्याख्या के लिए ‘यथार्थ गीता’ का अध्ययन अवश्य करें।
अगर सभी यह स्वीकार कर लें कि सबका धर्म एक है, ईश्वर एक है, रास्ता एक है तो मानव जाति के बीच कभी भी संघर्ष नहीं हो सकता।
लेखक: आशुतोषानन्द शिष्य परमहंस स्वामी बज्रानन्द जी महाराज

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