Yatharth Sandesh
19 Jun, 2025 (Hindi)
Dharm
धर्म आधारित व्यवस्था की महत्ता
Sub Category: Bhakti Geet
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भगवान श्री राम जैसे ही स्वयं को एक आदर्श शासक के रूप में सिद्ध करने का संकल्प लेते है वैसे ही लोगों में हर्ष की लहर दौड़ जाती है, और क्षण भर में लोगों के सारे शोक संताप मिट जाते हैं। निसिचर हीन करहुँ महि
भुज उठाई पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन जाइ जाइ सुख दीन्हा।।
राम राज्य की परिकल्पना योग मार्ग पर आरूढ़ लोगों को गौरवान्वित करती है भोग मार्ग के लोगों का इसमें कोई स्थान नहीं है। ऐसा ही होता है जब कोई शासक स्वयं को धर्म के मार्ग पर आरूढ़ होने का व्रत लेता है तो शासन पर लोगों का भरोसा बढ़ता है और उनके दुःख दर्द मिट जाते हैं। किन्तु जब व्यवस्था या शासन व्यावसायिकता का रूप धारण कर ले तो लोगों की समस्या शिकायतें बढ़ना स्वाभाविक है। इसलिए की व्यावसायिकता का आधार आर्थिक लाभ और स्वार्थ है न कि लोक कल्याण। व्यावसायिकता एक अभाव व मांग आधारित समाज निर्मित करता है जिस पर उसकी गति व विकास निर्भर होते हैं। ऐसी शोषक व्यवस्थाएं जनता को भ्रमित करने के लिए कुछ आदर्शो की बात करती हैं, किंतु एजेंडा अंदर खाने अपना ही चलाती हैं। इसके लिए कानून व न्याय का बखूबी ताना - बाना खड़ा किया जाता है , जिसकी बौद्धिक अक्षमता का दंश समाज व उसके लोग भोगते रहते हैं
अभी कुछ दिन पहले एक मामले में देश की शीर्ष अदालत का फैसला 43 साल बाद आया जिसमें 103 वर्ष के एक वृद्ध व्यक्ति को ससम्मान बरी करने का आदेश सुनाया गया। 43 वर्ष तक जेल की यातना पीड़ा अपमान सहन करने वाले निर्दोष के ससम्मान बरी करने वाले इस अदालती आदेश में प्रयुक्त ससम्मान की व्याख्या कौन करेगा?
जनता की मेहनत का करोड़ों रुपया जो न्याय व्यवस्था को आधुनिक बनाने में पारदर्शी बनाने में लगाया गया है कुछ भ्रष्ट न्यायिक अधिकारियों के कारण उसका उपयोग नहीं किया जा रहा है इसमें किसी बड़े षड्यंत्र की गंध आ रही है, क्या कारण है निचले स्तर से लेकर ऊपरी स्तर तक सभी न्यायिक अधिकारी अपनी संपत्ति का ब्यौरा आज तक ऑनलाइन सार्वजनिक नहीं किए हैं? वर्तमान में एक हाइकोर्ट के जज के घर से निकला पैसा पूरी व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगता है।
शायद यह प्रश्न सदैव अनुत्तरित ही रहे क्योंकि कानून की इस खामियों का उत्तर किसी के पास नहीं ओर न ही ऐसे खेल में शामिल होने वाले के लिए कोई दंड का विधान। कानून और न्याय के ऐसे खेल रोज की जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं। इसलिए कि व्यावसायिकता प्रधान व्यवस्था का यह परिणाम है। मैं निर्दोष हूं ऐसे वाक्य अदालतों मैं नित्य प्रति सुनाई देते हैं। कानून या विधि विधान लोक मंगल का हेतु है, न कि उत्पीड़न का। पर जो व्यवस्था स्वयंम को सिद्ध करने के बजाय विपरीत दिशा में बढ़ रही हो तो उसमें ऐसे वाक्य सुनाई पड़ते रहेंगे, अदालतें बैठती रहेंगी, लोग प्रताड़ित होते रहेंगे, मिटते रहेंगे कानून के नाम पर, व्यवस्था के नाम पर । सामान्यजन एवं विशिष्टजन से लेकर साधु संत तक व्यवस्थाओं के इस मकड़ जाल की चपेट में हैं जिन्होंने अपने जीवन का सर्वस्व त्याग करके इस देश को महान संस्कृति का निर्माण किया जिससे भारत विश्व गुरु कहलाया। पर आज कोई खुल कर कुछ बोलने वाले नहीं, जो लाभ उठा रहे हैं वो बोल नहीं सकते हैं जो बोलना चाहते हैं उनको दबा दिया जाता है। अतएव यह अव्यवस्था का कोहरा छाया ही रहेगा, जब तक भारत की व्यवस्था धर्म पर आधारित नहीं होगी। शायद मंदिरों में आरती के बाद नित्य बोले जाने वाले यह वाक्य धर्म की जय हो! अधर्म का नाश हो! प्राणियों में सद्भावना हो! विश्व का कल्याण हो! यह वाक्य हमारी व्यवस्था का घोष वाक्य बन पाएं।
भुज उठाई पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन जाइ जाइ सुख दीन्हा।।
राम राज्य की परिकल्पना योग मार्ग पर आरूढ़ लोगों को गौरवान्वित करती है भोग मार्ग के लोगों का इसमें कोई स्थान नहीं है। ऐसा ही होता है जब कोई शासक स्वयं को धर्म के मार्ग पर आरूढ़ होने का व्रत लेता है तो शासन पर लोगों का भरोसा बढ़ता है और उनके दुःख दर्द मिट जाते हैं। किन्तु जब व्यवस्था या शासन व्यावसायिकता का रूप धारण कर ले तो लोगों की समस्या शिकायतें बढ़ना स्वाभाविक है। इसलिए की व्यावसायिकता का आधार आर्थिक लाभ और स्वार्थ है न कि लोक कल्याण। व्यावसायिकता एक अभाव व मांग आधारित समाज निर्मित करता है जिस पर उसकी गति व विकास निर्भर होते हैं। ऐसी शोषक व्यवस्थाएं जनता को भ्रमित करने के लिए कुछ आदर्शो की बात करती हैं, किंतु एजेंडा अंदर खाने अपना ही चलाती हैं। इसके लिए कानून व न्याय का बखूबी ताना - बाना खड़ा किया जाता है , जिसकी बौद्धिक अक्षमता का दंश समाज व उसके लोग भोगते रहते हैं
अभी कुछ दिन पहले एक मामले में देश की शीर्ष अदालत का फैसला 43 साल बाद आया जिसमें 103 वर्ष के एक वृद्ध व्यक्ति को ससम्मान बरी करने का आदेश सुनाया गया। 43 वर्ष तक जेल की यातना पीड़ा अपमान सहन करने वाले निर्दोष के ससम्मान बरी करने वाले इस अदालती आदेश में प्रयुक्त ससम्मान की व्याख्या कौन करेगा?
जनता की मेहनत का करोड़ों रुपया जो न्याय व्यवस्था को आधुनिक बनाने में पारदर्शी बनाने में लगाया गया है कुछ भ्रष्ट न्यायिक अधिकारियों के कारण उसका उपयोग नहीं किया जा रहा है इसमें किसी बड़े षड्यंत्र की गंध आ रही है, क्या कारण है निचले स्तर से लेकर ऊपरी स्तर तक सभी न्यायिक अधिकारी अपनी संपत्ति का ब्यौरा आज तक ऑनलाइन सार्वजनिक नहीं किए हैं? वर्तमान में एक हाइकोर्ट के जज के घर से निकला पैसा पूरी व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगता है।
शायद यह प्रश्न सदैव अनुत्तरित ही रहे क्योंकि कानून की इस खामियों का उत्तर किसी के पास नहीं ओर न ही ऐसे खेल में शामिल होने वाले के लिए कोई दंड का विधान। कानून और न्याय के ऐसे खेल रोज की जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं। इसलिए कि व्यावसायिकता प्रधान व्यवस्था का यह परिणाम है। मैं निर्दोष हूं ऐसे वाक्य अदालतों मैं नित्य प्रति सुनाई देते हैं। कानून या विधि विधान लोक मंगल का हेतु है, न कि उत्पीड़न का। पर जो व्यवस्था स्वयंम को सिद्ध करने के बजाय विपरीत दिशा में बढ़ रही हो तो उसमें ऐसे वाक्य सुनाई पड़ते रहेंगे, अदालतें बैठती रहेंगी, लोग प्रताड़ित होते रहेंगे, मिटते रहेंगे कानून के नाम पर, व्यवस्था के नाम पर । सामान्यजन एवं विशिष्टजन से लेकर साधु संत तक व्यवस्थाओं के इस मकड़ जाल की चपेट में हैं जिन्होंने अपने जीवन का सर्वस्व त्याग करके इस देश को महान संस्कृति का निर्माण किया जिससे भारत विश्व गुरु कहलाया। पर आज कोई खुल कर कुछ बोलने वाले नहीं, जो लाभ उठा रहे हैं वो बोल नहीं सकते हैं जो बोलना चाहते हैं उनको दबा दिया जाता है। अतएव यह अव्यवस्था का कोहरा छाया ही रहेगा, जब तक भारत की व्यवस्था धर्म पर आधारित नहीं होगी। शायद मंदिरों में आरती के बाद नित्य बोले जाने वाले यह वाक्य धर्म की जय हो! अधर्म का नाश हो! प्राणियों में सद्भावना हो! विश्व का कल्याण हो! यह वाक्य हमारी व्यवस्था का घोष वाक्य बन पाएं।
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