नवरात्री पर्व की आध्यात्मिक व्याख्या
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आज नवरात्रि चल रहे हैं। आप सबने नवरात्रि मना रहे हैं। कुछ लोग श्रद्धा से व्रत भी रख रहे हैं। मनुष्य में श्रद्धा की कमी नहीं हर मनुष्य में श्रद्धा है। और उसकी श्रद्धा कहीं न कहीं लगी है इस धरती पर कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसके अन्दर श्रद्धा न हो। हमारी श्रद्धा कहीं माता-पिता में है, कहीं पत्नी बच्चे में है, कहीं मित्र में है, कहीं धन में है, कहीं पद में है, कहीं सम्मान में है, कहीं देवी में है और कहीं देवता में है। ऐसी श्रद्धा ठीक उसी तरह है जैसे कोई कुछ न कुछ दवा खाता रहता है। लेकिन जब तक सही दवा नहीं मिलेगी तब तक हमारा रोग ज्यों का त्यो रहेगा, चाहें दवा हम वर्षाें तक खाते रहें। पीढ़ी दर पीढ़ी बीत जाये, जन्म दर जन्म बीत जाये लेकिन जब तक हमारी श्रद्धा सही जगह नहीं होगी, श्रद्धा के अंतिम परिणाम शाश्वत सुख की प्राप्ति नहीं होगी। भगवान कृष्ण ने कहा-
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः सयंतेन्द्रियः
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। (गीता 4/39)
वह तत्काल परमशांति को प्राप्त हो जाता है। अगर श्रद्धा है और इन्द्रिय संयम नहीं या इन्द्रिय संयम है श्रद्धा सही जगह पर नहीं है तब भी आप ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए दोनों अपनी जगह पर सही होना चाहिये। वास्तव में श्रद्धा ता हमारे अंदर है मगर वह जगह-जगह बिखरी हुई है। श्रद्धा के कारण ही एक बार नवरात्रि में देवी के भक्त ने कहा कि यह देवी का वाहन है, मै इसको अपने हाथ से खिलाउंगा। वह शेर को फल खिलाने गया, मगर वह फल तो नहीं खाया पर उसका हाथ खा लिया। यहां पोहरी के पास एक घटना घटी थी, एक हरिजन ने अपने बच्चे का बलिदान दे दिया था, जैसा उसने सुना था कि देवी प्रगट होती है और खुश होकर उसको जीवित कर देती है। और उसकी मनोवांछित कामनाऐं पूरी होती हैं।
एक दिन हम सुबह यहीं आश्रम में बैठे थे तो शिवपुरी से दो गाड़ियां आयीें जिसमें बारह लोग थे। हमने पूछा इतनी सुबह कैसे आना हुआ। उन्होंने बताया स्वामी जी हम लोग गोवर्धन जा रहे हैं। हर अमावश और पूर्णिमा को हम परिक्रमा लगाने जाते हैं। हमने कहा कि आपने किराये की गाड़ी किया, खर्चा भी होगा, रास्ते में कोई दुर्घटना भी हो सकती है, इतना दुख उठाने के बाद वहां जाकर क्या मांगोगे? कोई संसार की ही वस्तु मांगोगे। संसार की वह वस्तु एक दिन अवश्य नष्ट होगी। जैसे किसी ने धन मांगा, किसी ने लड़का मांगा, किसी ने पद मांगा, किसी ने सम्मान मांगा तब बताइये इसमें से कुछ टिकाउ है? इतनी भाग-दौड़ करने के बाद मनुष्य जो मांगता है वह नश्वर ही है। संसार का व्यक्ति अप्रत्यक्ष रूप से दुख ही मांगता है। और दुख के समय वह कभी भगवान को कोसता है कभी अपने भाग्य को कोसता है, कभी अपने सहयोगियों को कोसता है। इसमें दोष किसका है? आपने भगवान से सुख कब मांगा था? जहां-जहां आपकी श्रद्धा टिकी हुई है वहां जाकर आपने केवल दुख ही मांगा, संसार की ही कोई वस्तु मांगी जो कि टिकाउ नहीं है। जिस दिन वह वस्तु नष्ट होगी आपको दुख प्राप्त होगा। तब आपने मांगा क्या? संसार में हर प्राणी बुद्धिमान ही तो बनता है।
भगवान ने खुश होकर बड़े-बड़े ऋषियों सृभंग से कहा, सुतीक्ष्ण से कहा कि मुझ से वर मांगो।
मुनि कह मोहि वर कबहुं न जांचा, समुझि का परे झूठ का साचा।।
इतने बड़े-बड़े मुनियों को यह समझ में नहीं आया कि मैं क्या मांगू। कहीं दुख न मांग बैठूं क्योंकि मुझे पता नहीं सच क्या है झूठ क्या है। संत कबीर से भी भगवान ने कहा कुछ मांगो हम तुमसे खुश हैं। सबसे बड़ी भूल तो हमसे यह हो जाती है कि देने वाले ने हमसे कभी कहा ही नहीं कि कुछ मांगो। हम बिना कहे ही रात-दिन उपस्थित होकर मांगते ही रहते हैं। हमारे अंदर इतने गुण आ जायें कि भगवान हमसे कहे मांगो आज हम खुश हैं, तभी तो मिलेगा। भक्तों का पूरा इतिहास आप उठाकर देखो, उन्होने ईश्वर को जब अपने अनुकूल ढाल लिया तब उनके गुणों से आकर्षित होकर परमात्मा ने उनसे कहा मांगो हम खुश हैं।
कागभुशुंडि मांग वर अतिप्रसन्न मोहि जान।
अणमादिक सिध अपर रिध, मोक्ष सकल सुख खान।।
लेकिन फिर भी भगवान ने उनसे जो कुछ मांगने को कहा उसमें से उन्होंने कुछ मांगा नहीं। मनु से भगवान ने कहा कुछ मांगो, तो उन्होंने कहा प्रभु आपके ही समान लड़का चाहिये। लेकिन बड़े-बड़े ऋषि कहते हैं कि ‘समुझ का परे झूठ का साचा’। लेकिन लगता है इन मुनियों से अधिक बुद्धि हमारे पास है। ऐसा हम सभी मानते हैं तभी तो मांगते हैं। संत कबीर ने कहा ‘का मांगू कछु थिर न रहाई’। तो आप सभी लोग विचार करो कि आप अपनी श्रद्धा का सदुपयोग कर रहे हैं या दुरूपयोग? आपकी श्रद्धा के परिणाम से संसारी भोग आपको प्राप्त हो गये तो आपकी श्रद्धा भी तो नष्ट हो गई और श्रद्धा से मिली वस्तु भी नष्ट हो गई, आपके परिश्रम का परिणाम क्या निकला? फिर भी हम सभी अपने को समझदार समझते हैं। श्रद्धा भी है, भाव भी है लेकिन ठीक जगह पर नहीं। हमारी श्रद्धा ठीक जगह होती, जहां से इसको श्रद्धा का उचित पारितोषिक मिलता है वह केवल परमात्मा है।
लाखों प्रकार की दवा आप लेते रहें, गोलियां लेते रहें लेकिन जो हमारे रोग की सही दवा जिस दिन मिल जायेगी हमारा रोग सदैव के लिए नष्ट हो जायेगा। श्रद्धा के अनुसार आप कहीं भी जायें, कुछ भी करें लेकिन विचार करें कि क्या जीवन से दुख गया? और जब आपकी श्रद्धा सही जगह पर पहुंच जायगी, स्थिर हो जायेगी, तब आपके जीवन की समस्याऐं हमेशा-हमेशा के लिए मिट जायेंगी।
इस नवरात्रि पर पर बहुत से श्रद्धालु भक्तों ने अपनी श्रद्धा का उपयोग किया, श्रद्धा के द्वारा नों दिन तक व्रत भी रखा लेकिन कुछ कह नहीं सकते कि जीवन में किस दिन समस्या आ जाये, कोई दुख आ जाये। लेकिन वास्तव में हम जैसा ‘नवरात्रि’ मनाते हैं यह वैसी है नहीं। ‘नवरात्रि’ का अर्थ ही होता है एक नई रात्रि। जैसे किवदंती है कि देवता लोग एक बार बैठे विचार कर रहे थे। असुरों का बल इतना बड़ गया था कि कोई भी देवता उन्हें जीत नहीं सका। शंकर जी भी नहीं जीत सके। मधु, कैटव, शुंभ, निशुंभ, महिसासुर और रक्तबीज यह छः दैत्य ऐसे थे जिन्हें कोई देवता जीत नहीं सका। इनसे त्राण पाने का उपाय देवता कर रहे थे, योजनांए बना रहे थे मगर सारी योजनांए फेल हो गईं। कोई उपाय काम नहीं कर रहा था। सारे देवता दुखी थे। कोई भी ऐसा देवता वहां नहीं था जो विद्यमान न हो। देवताओं के अत्यधिक दुखी होने से उनके अंतःकरण से एक तेज निकला और देखते-देखते उस तेज ने आकाश में एक नारी का रूप धारण कर लिया। शंकर जी ने अपना त्रिशूल दिया, विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र दिया, इन्द्र ने अपना वज्र दिया। हिमालय पहाड़ ने देवी के लिए एक शेर का वाहन दिया। जिस त्रिशूल से देवता असुरों का वध नहीं कर सके वह देवी के हाथ में आते ही बलशाली हो गया। उस शेर पर बैठकर देवी ने अट्टहास किया, उस अट्टहास से एक दूसरा रूप प्रगट हुआ जिसे काली कहते हैं। जिसने रक्तबीज का संहार किया। जितने भी शरीर बनते हैं यह पंचभौतिक से बनते हैं। चाहें देवता का हो या भगवान भी जब दिखाई देते हैं तो इस पंचभौतिक शरीर में ही दिखाई देते हैं। अलग से तो कभी किसी ने देखा नहीे। उसके बाद मधु, कैटव को मारा, शुंभ निशुंभ को मारा और महिसासुर को मारा। काली ने केवल रक्तबीज को मारा। रक्तबीज को ऐसा वरादान था कि वह किसी शस्त्र से नहीं मर सकता था। जितनी भी बूंद रक्त की धरती पर गिरेंगी उतने ही रक्तबीज पैदा हो जायेंगे। वास्तव में यह सब अध्यात्म है महापुरूषों ने मनुष्य के कल्याण को दृष्टि में रखते हुऐ, उन्हें कथानक के रूप में रखा। अगर वह कथानक उनके मष्तिष्क में बना रहेगा तो कभी न कभी उसे जिज्ञासा अवश्य होगी कि वह देवी कहां है? उसे पाने के लिए वह चल पड़ेगा और किसी न किसी दिन वास्तविकता को प्राप्त करेगा। वास्तव में ऐसी धार्मिक भावनांऐ ही हमें धार्मिक स्थलों तक ले जाती हैं। अगर यह समाज की प्रचलित परंपराऐं न होती तो आज कोई भी व्यक्ति धार्मिक स्थलों में न जाता। और उसे अपना रास्ता भी नहीं मिलता। इसलिए यह बहुत लाभप्रद है। हमारी धारणा है कि आज त्योहार है अमुक स्थान पर चलें, और कुछ न कुछ रास्ता मिल जाता है कुछ न कुछ प्रेरणा मिलती है जो हमारे हित में है। लेकिन हम केवल इन्ही खुशियों तक सीमित रहें तो इससे बड़ा नुकसान भी कुछ नहीं है। भगवान कृष्ण ने कहा अर्जुन देवता नाम की इस संसार में कोई वस्तु नहीं है। संसार में मनुष्य दो प्रकार का है-
द्वो भूतसर्गो लोकेऽस्मिन्देव आसुर एव च। (गीता 16/6)
मनुष्यों का स्वभाव दो प्रकार का है एक देवताओं जैसा और दूसरा असुरों जैसा। ‘दैवीसम्पद विमोक्षाय निबन्धाय मासुरी’ दैवीय सम्पद मोक्ष के लिए होती है और आसुरी बन्धनकारी होती है। कृष्ण देवता थे और कृष्ण के सगे संबधी बाणासुर, कंस असुर थे। स्वभाव के अनुसार भगवान ने मनुष्य को दो भागों में बांटा है। हम अगर देवता हैं तो हमारा सगा भाई असुर भी हो सकता है। जो विचार हमें भोंगों की तरफ प्रवृत करता है, वह विचार आसुरी विचार कहलाता है। और जो विचार हमें ईश्वर की ओर ले जाता है वह विचार दैवीय विचार कहलाता है। और जब ऐसे दैवीय विचारों का समूह हमारे अंदर आ जाता है तब हम भगवान को प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए भगवान कृष्ण ने कहा, ‘अर्जुन ! तू शोक मत कर तू दैवीय सम्पद को प्राप्त हुआ है, तू मुझमें निवास करेगा।’ आपका सम्पूर्ण इतिहास देवता और असुरों के संग्राम से भरा हुआ है।
महाभारत की सेना आमने-सामने खड़ी थी तब बर्बरीक ने देखा, व्यास ने देखा, भगवान कृष्ण ने देखा, भीष्म ने देखा कि जितने असुर थे वह कौरव सेना में प्रवेश कर गये और जितने देवता थे पाण्डव सेना में प्रवेश कर गये। समुद्र-मंथन में भी एक तरफ देवता व दूसरी तरफ असुर लगे। देवासुर संग्राम से भरा हुआ पूरा इतिहास है और हम सभी के अंतःकरण में यह दोनों प्रवृतियां सदैव रहती हैं। एक प्रवृति कहती है कि भजन करो, इसी में कल्याण है लेकिन जो हमें भोगों में विश्वास दिलाती है वह उसके विरोध में खड़ी रहती है। मंथन का मतलब क्या होता है? एक बार इधर, एक बार उधर। मथानी पर एक बार इधर हाथ आता है एक बार उधर हाथ आता है। हमारी जो सद्प्रवृति है वह निश्चय कर लेती है कि हमारा रास्ता इधर ही है, हमारा कल्याण इसी में है, लेकिन जो भोगों में विश्वास दिलाने वाली वृत्ति है, विचार है वह कहती है नहीं! यह सब पाखंण्ड है, यह ढोंग है, छलावा है। आप विचार करें कि जिधर आप जा रहे हैं वहां छलावा नहीं है क्या? उससे बड़ा धोखा और क्या है। जिन्दगी भर जो सम्पत्ति अर्जित किया और अंतिम समय एक सुई की नोंक भी साथ नहीं गई, इससे बड़ा छलावा और क्या हो सकता है।
एक चक्रवर्ती नरेश थे, उनके गुरू ने जब सुना कि उनका शिष्य राजा निरपराध लोगों का रक्त बहाकर अपने को चक्रवर्ती कहता है उसके पास गये और कहा, ‘राजन! हमारा तो अंतिम समय है, अब जा रहे हैं और तो हमारे पास कुछ है नहीं जब लंगोटी फट जाती थी तो इस सुई से हम सिल लेतेे थे। हम जब चले जायें तो तुम इसको लेकर आना। एक शिष्य के नाते तुम्हारा यह कर्तव्य है। बड़े सम्मान के साथ राजा ने रख लिया, रानी ने जब पूछा कि गुरूजी आये थे कुछ कहा क्या? राजा ने कहा कि गुरूजी एक सुई दे गये हैं कि जब आओ तो लेकर आना, यह सेवा दे गये हैं। रानी ने कहा आपने रख लिया क्या? राजा ने कहा हां गुरूजी का आदेश है। तब रानी ने कहा क्या इससे पहले कोई कुछ लेकर गया है? क्या आपके पिता कुछ लेकर गये? तब राजा की चेतना जागृत हुई, उसने कहा मुझसे बड़ी भूल हुई। दूसरे दिन राजा-रानी आश्रम गये और अपनी भूल के लिए क्षमा मांगा और कहा मेरे कल्याण के लिए आदेश करें। गुरूजी ने कहा जो कुछ यह इकठ्ठा किया है गरीबों में बांट दो, तुम्हारा उद्धार होगा। और जो यह पाप किया है पुण्य में परिणित हो जायेगा। राजा ने वैसा ही किया। इतना अर्जित करने के बाद भी एक सुई की नोंक के बराबर भी हम कुछ नहीं ले जा सकते हैं। अंत में जो कमर में धागा पड़ा रहता है, गले में धागा पड़ा रहता है उसे भी लोग काट देते हैं। यह भी भ्रामक धारणा है कि यह धागा काटने से वह बंधन मुक्त हो गया? ऐसी ही भ्रामक धारणा के बीच मानवजाति जी रही है, जो कुछ न कुछ अपने कल्याण के लिए करती ही रहती है। हमें विचार करना है कि हमारा कल्याण कहां है?
सुखी मीन जहां नीर अगाधा, जिम हरि शरण न ऐकहु व्याधा।।
मछली वहीं सुखी रहती है जहां नीर अगाध है, जैसे भगवान की शरण में एक भी व्याधा आप का स्पर्श नहीं कर सकती। सूर्य जब तक रहता है अंधेरा प्रवेश नहीं कर सकता है। जिसके जीवन में ईश्वर की प्रधानता है, उसके जीवन में दुख का प्रवेश नहीं हो सकता। सूर्य भी रहे और अंधेरा भी रहे, दोनों एक साथ नहीं रह सकते। इसलिए सबसे पहले हमारी आस्था और श्रद्धा जो बिखरी हुई हैं उसको भगवान का आदेश मानकर समेटना होगा। भगवान राम ने सम्पूर्ण जनता को कहा-
सब मम प्रिय सब मम उपजाये, सबसे अधिक मनुज मोहि भाये।
अखिल विश्व यह मोर उपाया, सब पर मोर बराबर दाया।
तिन्ह में जे परिहर मद माया, भजहिं मोर मन वच और काया।
पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोय।
सर्व भाव भज कपट तजि, मोह परम प्रिय सोय।।
हमारा भाव दो आना मंशापूर्ण में है, दो आना देवी में, दो आना हनुमान जी में, दो आना संकट मोचन में है, अगर कहीं सुन लिया कि किसी को देवी आती है तो दो आना उधर लीक हो जाता है और वहां चल देते हैं। लेकिन भगवान कहते है ‘सर्व भाव भज कपट तजि, मोजि परम प्रिय सोय’ क्या ऐसा आदेश हम मानते हैं? और जितने भी महापुरूष हुऐ है इसी क्रम से हुऐ हैं। ‘सपनेहु आन भरोस न देवक’ उन्हें स्वप्न में भी किसी दूसरे देवता का भरोसा नहीं था। हमारी भावना का, हमारी श्रद्धा का, हमारी आस्था का एक जगह स्थिर होना कठिन कार्य है, क्योंकि हम अपनी अर्जित मान्यताओं को छोड़ नहीं़ पाते। भयभीत रहते हैं कि कहीं इनको छोड़ दिया तो ये कहीं नाराज न हो जायें। वास्तव में अन्य कोई है ही नहीं तो नाराज होने का प्रश्न ही नहीं है। यह तो हमारी एक कल्पित मान्यता मात्र है।
व्यापक एक ब्रह्म अविनाशी, सत चेतन घन आनंद राशि।
जब वह एक ही परमात्मा सब जगह व्याप्त है तो हम दूसरा रूप कहां से बना लेते हैं? दूसरी बात, जब एक परमात्मा में आस्था हो गई लेकिन जब तक सद्गुरू नहीं मिलते साधना नहीं मिलती, भटकाव बना रहता है। भगवान कृष्ण साधना की शुरूवात बताते हैं। जब कोई महापुरूष मिल जाते हैं तो परमात्मा से संबधित संस्कारों की रचना करते हैं।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।। (गीता 3/10)
प्रजापति ब्रह्मा (प्रजा के पिता महापुरूष, सद्गुरू) ने कल्प के आदि में यज्ञसहित प्रजा को रचकर कहा कि इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ। यह यज्ञ तुमलोगों को इष्ट-सम्बन्धी कामना की पूर्ति करेगा। यज्ञ का अर्थ होता है ‘जानने योग्य’, सृष्टि में सबकुछ जानलो लेकिन जब तक परमात्मा को नहीं जानोगे तब तक जानना शेष रहेगा। जब आप भली प्रकार श्वास का निरोध कर लोगे तब ही आप जान पाओगे। इसलिए श्वांस पर उठने वाले संकल्पों का निरोध किया, हृदय में उठने वाले विचारों का निरोध किया और अंतिम विचार के परिणाम के निरोध के साथ यज्ञ का परिणाम परमात्मा प्राप्त हो जाता है।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरूसत्तम।। (गीता 4/31)
यज्ञ करते करते जो शेष बचता है उस ज्ञानामृत का पान करने वाला योगी सनातन ब्रह्म में प्रवेश पा जाता है। प्रजा के सहित इस यज्ञ की रचना किया और कहा इस यज्ञ से आप इष्ट सम्बंधी कामनाओं की पूर्ति करो। बहुत से लोग भजन करते हैं यज्ञ करते हैं, लेकिन बदले में संसार के भोग मांग लेते हैं। इससे बड़ा अनिष्ट और क्या होगा क्योंकि वह भोग प्राप्त होकर भोगने में आ जाता है और वह भोग व भोगने वाला दोनों नष्ट हो जाते हैं। इसलिए वह महापुरूष निर्देश देते हैं कि आप भजन तो करो पर मांगो वहीं जिसमें आपका इष्ट हो अनिष्ट न हो। श्रद्धा के अनुसार मनुष्य अपना फल प्राप्त कर लेता है लेकिन वह फल व भोगने वाला मनुष्य दोनों ही नष्ट हो जाते हैं। क्योंकि मनुष्य कहीं भी पूजा करता है वह मेरी ही पूजा करता है, लेकिन अर्जुन यह पूजन अविधिपूर्वक है तो विधि क्या है? दैवीय सम्पत्ति को हृदय में बलबती बनाओ। ज्यों-ज्यों दैवीय गुण आपके अन्दर बढ़ते चले जायेंगे उतना ही हम सजग रहेंगे। तब फिर हमसे न बोलने में भूल होगी, बैठने में भूल होगी न मन में कोई ऐसा संकल्प आयेगा जो हमें ईश्वर की प्रतिकूलता प्रदान करे, यह परमात्मा का नियम है।
भगवान के सुमिरन में जो मन रहता है, उस मन की भगवान रक्षा करते हैं। यह शरीर हजारों बार भोगों के काम आया है, पत्नि के काम आया, मां बाप के काम आया, बच्चों के काम आया और सम्बन्धियों के काम आया लेकिन फिर भी हमारे जीवन में दुख बना हुआ है। जिनके भी काम आया उनमें से कोई भी ऐसा नहीं जो हमें दुखों से बचा ले, इन अनेकों प्रकार की योनियों के चक्कर लगाने से बचा ले। यह आत्मा जो इस शरीर में है यह अनन्त योनियों में जाती है।
लख चौरासी भटक के पौ पर अटकी आय।
अबकी पासा न पड़ा तो फिर चौरासी जाय।।
जैसे आप किसी दुकान से आज कपड़ा खरीद कर लाते हैं और कल उस दुकान का सारा कपड़ा जल जाये तो आपको दुख नहीं होगा। और उस कपड़े का अपने शर्ट बनवा लिया वह जमीन पर गिर जाये, फट जाये, चोरी हो जाये आपको दुख होगा। आप उसकी सुरक्षा करोगे लेकिन यह शरीर जिसके काम आ रहा है अनादि काल से, उनमें से कोई ऐसा है जो इस शरीर की सुरक्षा कर सकता है? हमारा शरीर जब भगवान के काम आने लगता है तो भगवान स्वयं इसकी सुरक्षा करते हैं। और यह मन जब सुमिरन में लग जाता है तो भगवान इस मन की भी सुरक्षा करते हैं। फिर इस मन में कोई दूषित संकल्प या विचार नहीं आने पाता जो हमें पुनः इस संसार चक्र में भटका दे।
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। (गीता 4/8)
‘परित्राणाय साधुनां’ जो दैवीय गुण है उनकी सुरक्षा के लिए। लेकिन जब मन बाहर जाता है तो दुर्गणों को नष्ट करने के लिए मंै हृदय देश से रथी हो जाता हूँ। यही महापुरूष का कार्य होता है जब आपकी श्रद्धा सब ओर से सिमटकर (सभी परंपराओं, भूत-भवानी इत्यादि) एक जगह स्थिर हो जाती है सभी महापुरूषों ने इसी तरह पाया। सृभंग ने कहा-
मन क्रम वचन राम पद सेवक, सपनेहु आन भरोस न देवक।
उन्होंने स्वप्न में भी किसी अन्य देवता को प्रणाम नहीं किया, न किसी का भरोसा किया। यह समस्या सबके सामने आती है, तुलसीदास जी के सामने भी आयी, तब उन्होंने कहा-
क्या कहूं छवि आपकी, भले विराजो नाथ।
तुलसी मस्तक तब नबे, धनुष बान लो हाथ।।
उत्तम के अस बस मन माहिं, सपनेहु आन पुरूष जग नाहिं।।
यह उत्तम भक्त का लक्षण है कि वह स्वप्न में भी शिर झुकायेगा तो अपने इष्ट के स्वरूप को पकड़कर ही झुकायेगा। तब भगवान को धनुष बान लेना पड़ा, यह परीक्षा की घड़ी थी। और उसी समय गोस्वामी जी को अपने स्वरूप की प्राप्ति भी हो गयी। जब हमारी आस्था भगवान की कसौटी पर खरी उतर गई तब-
कबिरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर।
पाछे लागे हरि फिरे कहत कबीर कबीर।।
भगवान कृष्ण ने उद्धव से कहा, ‘उद्धव जिसकी मुझे छोड़कर कहीं स्वप्न में भी आस्था नहीं है, ऐसे भक्तों के पीछे-पीछे में घूमता हूँ इस उद्देश्य से कि उनके चरणों की धूल मेरे उपर पड़ जाये और में पवित्र हो जाउं। और सभी महापुरूषें का अनुभव भी यही है कि-
संत दुलरूआ राम के, जहां पठवे तहं जाये।
पाछे लागे हरि फिरें कहुं भूखा न सो जाये।।
पहले भगवान के पीछे वह भक्त खुद ही दौढ़ रहा था, भगवान सुनते ही नहीं थे। अब भक्त नहीं सुन रहे, बिल्कुल उल्टा हो गया और यही वास्तविकता है। आप भगवान का स्वरूप पकड़ते हो बताइये कितनी देर पकड़ में आता है? दो मिनट से ज्यादा शायद कोई नहीं पकड़ पाता। लेकिन जो भगवान को प्रिय है जिस दिन वह करने लगोगे जैसा भगवान ने कहा कि-
जननी जनक बन्धु सुत दारा, तन धन भुवन सुहृद परिवारा।
सब कर ममता ताग बटोरी, मम पद मनहिं बाध बट डोरी।।
अस सज्जन मम उर बसे कैसे, लोभी हृदय बसत धन जैसे।
जहां इतनी योग्यता आयी तो आप भगवान की दृष्टि में सज्जन बन जायेंगे अर्थात इससे पहले आप दुर्जन थे। भगवान कहते हैं ऐसे सज्जन को में अपने हृदय में बैठा लेता हूँ। यह दैवीय गुण ही आपकी शक्ति है क्या आपकी शक्ति को आपसे अलग किया जा सकता है? भगवान कृष्ण ने कहा अर्जुन!
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्यस्यथ।। (गीता 3/11)
भगवान का रास्ता कैसा है इस पर कहते हैं?
बिना पैर का पंथ है, बिन बस्ती का देश।
बिन शरीर का देव है, कहत कबीर संदेश।।
जितने आपके हृ दय में दैवीय गुण बड़ते जायेंगे उतना ही रास्ता आपने तय कर लिया। यह साधना विवेक के द्वारा, विचार के द्वारा होती है भगवान कृष्ण ने यह कभी नहीं कहा अर्जुन तुमने ओम का बहुत जाप कर लिया। वास्तव में हम नाम तो बहुत समय से जप रहे हैं लेकिन हमारे अंदर राग-द्वेष भरा हुआ है, भोगों के प्रति हमारी आसक्ति है, अंदर वासनांये हैं। इनको विचारों के द्वारा त्याग करते जाओ, तभी नाम जप का परिणाम आपके सामने आयेगा। अर्जुन इस प्रकार परस्पर वृद्धि प्राप्त करते हुऐ श्रेय को प्राप्त हो जाओ, परम कल्याण को प्राप्त हो जाओ। और बहुत से लोग भजन करके भोग मांग लेते हैं उनके लिए भगवान कृष्ण कहते हैं-
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुज्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।। गीता 3/13
श्वांस प्रश्वांस का यजन करते हुऐ, श्वांस पर दृष्टि रखते हुऐ, उसमें केवल नाम ही आये और जाये। और संसार के जो संकल्प और विकल्प आते हैं और जाते हैं इन पर रोक लगा दो तो आपको भजन का परिणाम मिल जायेगा। पापमयी विचारों से छुटकारा मिलने पर संत लोग सम्पूर्ण पापों से छूट जाते हैं, लेकिन जिनकी भोंगों के प्रति आसक्ति बनी हुई है वह ‘आत्मकारणात’ बदले में भोग मांग लेते हैं वह अभागे हैं।
यमराज ने नचिकेता को स्वर्ग के भोग देने का प्रलोभन दिया कि आप आत्मा के बारे में मत कुछ पूछो, स्वर्ग के वह भोग जो मनुष्य को दुर्लभ हैं वह मांग लो, स्वर्ग की सुन्दर अप्सराओं को ले जाओ इनसे सेवा कराओ, पृथ्वी का धन-धान्य संपन्न अकंटक राज्य मांग लो। लेकिन नचिकेता ने यमराज से कहा आप जैसे महापुरूष को प्राप्त करके जो भोग मांगता है, उससे बड़ा अभागा इस धरती पर और कौन हो सकता है कि अपने हाथ में आये हुऐ सुअवसर को खो दिया। इसलिए भगवन यह भोग आपके ही पास रहें मुझे तो आत्मतत्व के बारे में बताइये, आत्मदर्शन कैसे हो? अग्नि विद्या इसलिए कहा गया क्योंकि उसमें सभी शुभाशुभ कर्म दग्ध हो जाते हैं बाद में केवल आपक स्वरूप ही शेष बचता है।
जब राक्षस मर गये तो भगवान ने वानरों को विदा कर दिया, वह वानर सब देवता थे।
ब्रह्म लोक तब विधि गये, देवन यह सिखाये।
वानर तन धर धर महि हरि पद सेवहु जाय।।
जब सबकुछ खत्म हो गया तो यदुवंशियों को भी भगवान ने खत्म करवा दिया। कौरवों की सेना मर गई तब बाद में पांण्डवों की सेना भी खत्म हो गई। जहां आसुरी सम्पद खत्म हो जाती है तो दैवीय विचारों का कोई उपयोग नहीं रह जाता। उनका उपयोग संसार के लिए रहता है, उस महापुरूष के लिए नहीं रहता है। भगवान कृष्ण ने कहा अर्जुन इस धरती के कणों की तो गिनती हो सकती है लेकिन मेरे गुणों का अंत नहीं है ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’। ‘वानर कटक उमा में देखा, सो मूरख जो करन चाहे लेखा’ दैवीय गुण अनंत है जो सबके हृदय के अंतराल में विद्यमान हैं। इनका अंत नहीं है जितना आप संसार से सिमटते जायेंगे, ईश्वर चिंतन में जितनी गहराई से प्रवेश करते जायेंगे, उतने ही गुणें के अधिकारी आप बनते जायेंगे और एक दिन ऐसा आयेगा आप चाहो तब भी भगवान आपका साथ नहीे छोड़ेंगे।
बाद में मधु और कैटव, कैटव माने जो कांटे की तरह चुभता है। दो तरह की दुनियां है
एक रचे गुन बस जाके, प्रभु प्रेरित नहीं निज बल ताके।
एक दुष्ट अतिशय दुख रूपा, जा वश जीव परा भव कूपा।।
एक मधु है और एक कैटव, एक शुम्भ (शुभ) और निशुम्भ (अशुभ)।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।। (गीता 12/17)
शुभ और अशुभ दोनों के परिणामों के फल को त्याग कर जो मेरे में लगा हुआ है। जब एक भी विचार आता है तो वह हमें परमात्मा से अलग कर देता है यही रक्तबीज है। अगर आपका एक भी संकल्प हो गया तुरंत विचारों की श्रंखला खड़ी हो जायेंगी। जैसे आप शांत तालाब के पानी में एक कंकड़ मार दो फिर लहर पर लहर तैयार हो जायेगी, जितनी भी बूंद गिरेंगी उतने ही रक्तबीज तैयार हो जायेंगे। एक संकल्प से हजारों संकल्प तैयार हो जाते हैं। इसलिए एक भी बूंद धरती पर न गिरने पाये ‘धड़ धरती का एकै लेखा, जस बाहर तस भीतर देखा’ कहीं भी आपकी शरीरों में आसक्ति न रह जाये। संसार में कहीं आसक्ति न रह जाये उसके लिए आप देखें कि जब तक एक भी संकल्प शेष है आप काल के आधीन हैं सावधानी के साथ आप आगे बड़ें। भगवान कृष्ण कहते हैं अर्जुन!
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि।। (गीता 18/58)
अर्जुन तुमने अगर मुझमें मन को लगा दिया तो सम्पूर्ण दुर्गुणों से पार हो जाओगे। यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहीं सुनोगे तो तुम विनाश को प्राप्त होगे। इतना व्रत उपवास करने के बाद अपने जीवन का अघ्ययन करना चाहिये कि मेरे जीवन से दुख गया कि नहीं गया। जैसे दवा खाने के बाद आप देखते हो कि मेरा रोग गया कि नहीं गया। जब दैवीय गुण बड़ेंगे तो यह दैवीय गुण आपको शक्ति के रूप में प्राप्त होंगे और वही शक्ति आपको असुरों (आसुरी विचारों) से लड़ने के लिए आवश्यक है। जो विचार आज आपको संसार में गिरा देते हैं। तो कल इन्हीं विचारों को दबाकर, नष्ट करके आप आगे बड़ जाओगे। साधना में चलने वाला यह स्वयं देखता है। और एक दिन भजन का परिणाम निकल आता है। इसलिए हर नवरात्रि के बाद राम जुड़ा है। आप क्वार में नवरात्रि मनाते हैं तो बाद में आता हैं ‘विजय दशमी’ और अभी ‘राम नवमी’ अर्थात राम का जन्म। नवरात्रि का मतलब नौ दिन नहीें होता जैसे नवयुबक या नव वर्ष। जब आपको संसार समझ में आ गया कि संसार का परिणाम दुख है, आप राजाओं के बराबर भी भोग प्राप्त करलो लेकिन संसार का परिणाम दुख हैं। जहां यह भावना दृढ़ होती है तब आप श्रद्धा से परमात्मा की तरफ चलते हो तब ‘राम’ का प्रवेश होता है, ‘रमन्ते योगिनः यस्मिन स रामः’ जिसमें योगी लोग रमण करते हैं। ‘यद्यपि ब्रह्म अखण्ड अनन्ता, अनुभवगम्य भजहि जेहि संता’ अनुभव या विज्ञानरूपी राम का प्रादुर्भाव हो जाता है। आप ने संत को पकड़ा, उनकी सेवा पकड़ी, ईश्वर के नाम का जाप पकड़ा, और बदले में भगवान आपके हृदय से रथी हो गये, उसी का नाम है ‘राम’। जो अपने भक्त को उठाता है, बैठाता है, चलाता है उसी सत्ता का नाम है ‘राम’। उसका जन्म हुआ और उसका कार्यक्षेत्र कहां तक है जब रावण की मृत्यु हो जायेगी।
मोह दशमौलि तदभ्रात अहंकार, पाकारजित काम विश्रामहारी।
बपुष ब्रह्मांड सुप्रवृति लंका, रचित मन दनुज लोभकारी।।
जहां उन दशों इंद्रियों पर विजय प्राप्त हो जायेगी वहां मोह का अंत हो जायेगा क्योंकि इन्द्रियों का प्रसार ही जगत है इसलिए भगवान कृष्ण ने कहा ‘तत्परः संयतेन्द्रिय’ और अंतिम संकल्प का संयम करते ही रावण का अंत हो गया, राम की विजय हो गई। ‘मोह निशा सब सोवनिहारा’, ‘मोह सकल व्याधिन कर मूला, तिन ते पुनि उपजहिं बहुशूला’ यह मोह क्या है ‘महामोह महिशेष विषाला, रामकथा कालिका कराला’, ब्रह्मविद्या ही कराल काली है जिससे मोह का अंत होता है परमात्मा का चिंतन करते हुऐ इस महामोह का अंत यह महिसासुर इसलिए दिखाया गया है क्योंकि यमराज की सवारी भेंसा है जब तक आप मोह के अंर्तगत चल रहे हो आप काल के आधीन हो। जहां भगवान के निर्देशन में चलते हुऐ इससे छुटकारा मिल गया तो आपकी नवरात्रि पूर्ण हो गई। भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन के साथ आपका व्रत पूरा हो गया। तब-
माला जपूं न कर जपूं, जिभ्या जपूं न नाम।
भजन हमारो हरि करे, हम पायो विश्राम।।
इसलिए एक परमात्मा के नाम जप से शुरूवात करो, और सब ओर से अपनी आस्था को हटाकर एक परमात्मा में केंद्रित कर दो, साधना का परिणाम आपको स्वयं मिलेगा, ओर जब तक आपकी आस्थाऐं बिखरी रहेंगी तब तक दुख आपको झेलना ही पड़ेगा। जो अस्त्र-शस्त्र दिखाऐ गये हैं वह एक रूपक मात्र हैं। एक-एक देवता को कमल के उपर बैठे दिखाया गया है क्या कमल किसी का भार वहन कर सकता है कमल निर्मलता का प्रतीक है ज्यों -ज्यों हमारी इन्द्रियां निर्मल होती जायेंगी, संसार और भोगों के चिंतन से दूर होती जायेंगी, तब तब हमारे हृदय में निर्मलता आती जायेगी। उस परमदेव का देवत्व हमारे हृदय में आता जायेगा। जिस दिन सम्पूर्ण विकारों का अंत हो जाता है उसी दिन दैवीय सम्पद का कार्य समाप्त हो जाता है, दुर्गा सारे निशाचरों का अंत करके अदृश्य हो गई। त्रिशूल का तात्पर्य है जहां परमदेव का देवत्व पूर्ण हुआ वह पथिक तीनों शूलो से उपराम हो जाता है जहां शुभ दर्शन की प्रबल भावना होती है तो सारे आसुरी विचार, भोगों के विचार तिरोहित हो जाते हैं। निशा कहते हैं रात्रि को ‘मोह निशा सब सोवनहारा, देखहि स्वप्न अनेक प्रकारा’ इस मोहरूपी रात्रि से जो प्रेरित हैं तो आप इस मोहरात्रि से निकलकर नवरात्रि में आ जाते हैं। हमारा एक-एक श्वांस कालरात्रि में जा रहा है, और जब संसार के भोगों का अस्तित्व समझ में आ जाता है, उनकी सीमा समझ में आ जाती है, उनका परिणाम समझ में आ जाता है तो उसके जीवन में एक नई रात्रि का शुभारम्भ होता है जब वह परमात्मा को अपने हृदय में धारण करता है जब तक आप प्रकृति में है तब तक भय है, परमात्मा के क्षेत्र में भय नहीं है इसलिए हिमालय ने दुर्गा को शेर दिया था। शेर निर्भयता का प्रतीक है ‘ हिमगिरि कोटि अचल रघुवीरा, सिंधु कोटि शत सम गंभीरा’ हिमालय अचलता का प्रतीक है। जब हिमालय की तराई पर नारद जी पहुंचे तो ‘ सुमिरत हरि श्राप गति बाधी, सहज विमल मन लागि समाधि’ भगवान करोड़ों हिमालय की तरह अचल हैं जब मन की तरंग शांत हो जाये। लेकिन यह कैसे शांत होगी? यह मन कहंा जाता है मान-सम्मान में जाता है सभी लोग चाहते हैं कि हम अपना मन शांत कर लंे किंतु कुछ बाधाऐं हैं।
लाखों योजन पर्वत उपर घाटी विकट करूर,
कर कर जतन फिरे बहुतेरे पहुंचा विरला शूर,
निरंजन घर का पंथ कठिन रे दूर।
बहुत लोग प्रयास करते हैं।
चलो चलो सब कोई कहे, विरला पहुंचा कोय।
एक कंचन एक कामिनी, दुर्बल घाटी दोय।।
इनसे बचने वाला शीध्र ही मार्ग को पाता है।
ओम श्री सद्गुरूदेव भगवान की जय!