अपराधी की गिरफ्तारी पर मद्रास हाई कोर्ट ने इसलिए रोक लगा दी क्यूंकि उसने "रोज़ा" रखा हुआ था
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अब देश की अदालतें भी रोजे रमजान आदि को देख कर फैसले दिया करेंगी. ऐसा ही एक मामला आया है, जिसमे मुस्लिम अपराधी जिसने 1997 यानी 20 साल पहले अपराध किया था. लचर कानूनी व्यवस्था के चलते जो सजा उसे 20 साल पहले मिलनी चाहिए थी. वो अब जाकर मिली और सबसे बड़ा दुर्भग्य यह है इस देश के तन्त्र का, कि रोजे और रमजान के नाम पर अपराधी की गिरफ्तारी 29 जून तक टाल दी गयी है. इस तरह का आदेश देश की धर्मनिरपेक्षता के उपर एक तमाचे के समान है. पूरा मामला है की 21 जून को मद्रास हाईकोर्ट में एक याचिका सामने आई, जिसके अनुसार तमिलनाडु के मुस्लिम नेता को विदेशी मुद्रा अधिनियम के अंतर्गत एक वर्ष की जेल की सजा हुई, लेकिन उसने हाईकोर्ट के सामने यह गुहार लगाई कि वह रोजेदार है, इसलिए उसे अभी जेल नहीं भेजा जाए. जस्टिस एन सतीश कुमार ने इस याचिका की सुनवाई करते हुए पुलिस को निर्देश दिया कि चूँकि रमज़ान एक पवित्र माह है, इसलिए आरोपी (जिसे निचली कोर्ट से एक वर्ष की सजा मिली है) को फिलहाल जेल न भेजा जाए. TNMK (तमिलनाडु मुस्लिम कशघम) के नेता मोहम्मद जवाहिरुल्ला ने 1997 में कोयम्बटूर में एक मुस्लिम NGO सोसायटी बनाकर विदेशों से बड़ी मात्रा में पैसा प्राप्त किया, लेकिन उस अमानत में से लगभग डेढ़ करोड़ रूपए की खयानत कर डाली. इस मामले में FCRA क़ानून के तहत उस पर कार्यवाही हुई और बीस साल बाद निचले कोर्ट ने उसे सजा सुनाई. परन्तु कल हाईकोर्ट ने उसके जेल भेजने पर फिलहाल एक सप्ताह की रोक लगा दी है, क्योंकि रमज़ान पवित्र माह है और इस चोर ने रोज़ा रखा हुआ है. बहरहाल, विश्लेषकों को यह समझ नहीं आ रहा है कि रोज़ा रखने और क़ानून का पालन करने के बीच क्या सम्बन्ध है? क्या जवाहिरुल्लाह ने गबन करने के पहले या बाद में कभी रोज़ा नहीं रखा? या “पवित्र” रमज़ान माह में उसने आज तक कभी धोखाधड़ी नहीं की? तो जब सारे काले काम रमज़ान के दौरान किए जा सकते हैं तो इसी दौरान जेल जाने में क्या आपत्ति है?जेल में हजारों मुस्लिम कैदी हैं जो वहाँ अपना रोजा रखते हैं, तो मोहम्मद जवाहिरुल्ला को ऐसा करने में क्या दिक्कत थी? सबसे बड़ा सवाल तो माननीय जस्टिस महोदय पर उठ रहा है कि भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान और न्यायालयों की परंपरा को उन्होंने कैसे दागदार कर दिया? चूँकि आरोपी “रोजेदार” है इसलिए जेल नहीं भेजा जाए, ऐसे बेतुके निर्णय आज से पहले किसने दिए होंगे? लेकिन “सेकुलरिज़्म” और “मुस्लिम-प्रेम” के नाम पर, भारत में ऐसे नए-नए कारनामे आए दिन होते रहते हैं और यह बढ़ते ही जा रहे हैं. अन्तत यदि देश की न्यायपालिका ही ऐसे भेदभाव पूर्ण निर्णय देगी तो शायद ही इस देश का कुछ हो पाए चुकीं न्याय के अंदर धार्मिक रूप से भेदभाव नही होने चाहियें. तेलंगाना में भी ऐसे ही एक “सेकुलर” मामले में वहाँ की हाईकोर्ट ने दखल देने से मना कर दिया था. एक मुस्लिम महिला लुबना ने याचिका लगाई थी कि तेलंगाना सरकार हैदराबाद की 380 मस्जिदों तथा राज्य की 420 मस्जिदों में इफ्तार पार्टी के नाम पर जो 60 करोड़ रूपए खर्च कर रही है, वह वास्तव में गरीब मुस्लिमों की पढ़ाई के लिए रखे गए हैं, इसलिए सरकार को यह करने से रोका जाए. परन्तु हाईकोर्ट के जस्टिस टी रजनी ने यह कहते हुए अपना पल्ला झाड़ लिया कि उसने तेलंगाना सरकार से कहा है कि गरीब मुस्लिमों के साथ अन्याय न हो. भारत के “तथाकथित सेकुलरिज़्म” के तहत हालत ये हो गई है कि बंगाल और केरल में शुक्रवार (जुमे) के दिन स्कूलों के अवकाश घोषित होने लगे हैं. इन राज्यों में न्यायालयों के कामकाज का समय भी नमाज के अनुसार “एडजस्ट” किया जाता है. इसके अलावा बंगाल के कई जिलों में बाकायदा पुलिस संरक्षण में TMC के मुस्लिम गुंडों द्वारा हिन्दू व्यापारियों से इफ्तार मजलिस के लिए “अवैध वसूली” की जा रही है. संक्षेप में बात यह है कि भारत में “तथाकथित धर्मनिरपेक्षता” (यानी मुस्लिमों को खुश रखना) की बीमारी तेजी से प्रशासन के प्रत्येक हिस्से को अपनी चपेट में ले रही है. हिन्दू जनता को अपने समाज, अपने धर्म और अपनी रक्षा से कोई लेना-देना नहीं है, वह केवल सरकार और पुलिस के भरोसे बैठा रहता है. उधर तथाकथित हिंदूवादी सरकारें पता नहीं कौन सी भाँग की गोली खाकर सत्ता में बैठी हुई हैं. इन हालातो से प्रतीत होता है शायद ये शासन और व्यवस्था गजवा-ए-हिन्द के लिए कार्य कर रही है