यूरोपीय देशो में बढ रही है संस्कृत के प्रति रूचि किंतु भारत में ही उपेक्षा की मार !
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संस्कृत क्यों ? इसका उत्तर देने से पहले हमें संस्कृत के गुणों पर ध्यान देना होगा। अपनी आवाज की सुमधुरता, उच्चारण की शुद्धता और रचना के सभी आयामों में संपूर्णता के कारण यह सभी भाषाओं से श्रेष्ठ है ! यही कारण है कि अन्य भाषाओं की भांति मौलिक रूप से कभी भी इसमें पूरा परिवर्तन नहीं हुआ। मनुष्य के इतिहास की सबसे पूर्ण भाषा होने के कारण इसमें परिवर्तन की कभी कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ी… !” – Rutger Kortenhost. (आयरलैंड के एक विद्यालय में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष)
पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि, भारत में जैसे ही “संस्कृत” का नाम लिया जाता है, तो तमाम कथित प्रगतिशील और नकली बुद्धिजीवी किस्म के लोग नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं ! वेटिकन पोषित कुछ तथाकथित दलित चिंतकों ने तो संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा को “ब्राह्मणवाद” से जोड़ दिया है, जबकि देहली-चेन्नई के वामपंथ पोषित विश्वविद्यालयों ने संस्कृत को लगभग “साम्प्रदायिक” और भगवाकरण से जोड़ रखा है !
वर्षों से चलाया जा रहा इनका एजेंडा सफल भी होता दिख रहा है, क्योंकि भारत में लगातार संस्कृत शिक्षा की उपेक्षा हो रही है। वर्तमान सरकार ने पिछले तीन वर्षों में काफी कुछ प्रयास किए हैं, परंतु संस्कृत को लेकर जो “नकारात्मक छवि” गढ़ दी गई है और कॉन्वेंट संस्कृती की अंग्रेजी शिक्षा ने गांव-गांव में अपने पैर पसारे हैं, उसके कारण संस्कृत का माहौल विद्यालय स्तर से ही खराब बना हुआ है !
और उधर यूरोप के प्रमुख देश जर्मनी में पिछले कुछ वर्षों से संस्कृत को लेकर जो रूचि उत्पन्न होनी शुरू हुई थी, वह अब लगभग सच्चार्इ में परिवर्तित हो चुकी है ! सरलता से विश्वास नहीं होता, परन्तु यही सच है कि वर्तमान में जर्मनी के १४ विश्वविद्यालयों में संस्कृत और भारतीय विद्याओं पर न केवल पढ़ाई चल रही है, बल्कि इसके लिए बाकायदा अलग से विभाग गठित किए गए हैं। इसी प्रकार ब्रिटेन के चार विश्वविद्यालय संस्कृत की पढ़ाई जारी रखे हुए हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ हेडेलबर्ग के प्रोफ़ेसर अक्सेल माइकल्स बताते हैं कि, जब १५ वर्ष पहले हमने संस्कृत विभाग शुरू किया था, तो दो-तीन वर्षों में ही उसे बन्द करने के बारे में सोचने लगे थे। जबकि आज की स्थिति यह है कि, संस्कृत की पढ़ाई करने के इच्छुक यूरोपीय देशों से हमें इतने आवेदन मिल रहे हैं कि, हमें उन्हें मना करना पड़ रहा है कि, स्थान खाली नहीं है ! अभी तक ३४ देशों के २५४ छात्र संस्कृत का कोर्स कर रहे हैं और यह संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती ही जा रही है !
जर्मनी के एक विश्वविद्यालय में चल रही संस्कृत की कक्षा
प्रोफ़ेसर माईकील्स के अनुसार, किसी भाषा को किसी राजनैतिक विचारधारा अथवा जातीयता से जोड देना नितांत बेवकूफी ही कही जाएगी। संस्कृत जैसी समृद्धशाली भाषा की उपेक्षा रोकना भारत की जिम्मेदारी है ! वे आगे कहते हैं कि, बौद्ध पंथ के मूल विचार भी संस्कृत में ही हैं। सृष्टि के इतिहास, भाषा विज्ञान, एवं संस्कृति को समझने के लिए संस्कृत को पढ़ना और समझना बेहद जरूरी है। इटली से आए फ्रेंसेस्का लुनेरी नामक उन्हीं के एक छात्र, जो कि मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं, का कहना है कि मैं मनोचिकित्सा में शोध कर रहा हूँ तथा मुझे बंगाल के गिरीन्द्र शेखर बोस के लिखे हुए मूल बांगला शोधपत्रों एवं पुस्तकों को पढ़ने के लिए, पहले संस्कृत सीखने जा रहा हूँ, क्योंकि यही मूल भाषा है। उनका कहना है कि राजनीति एवं अर्थशास्त्र को बेहतर तरीके से समझने के लिए हमें चाणक्य लिखित संस्कृत के मूल अर्थशास्त्र को पढ़ना बेहद जरूरी है !
कानपुर आयआयटी से गणित में स्नातक आनंद मिश्रा अगले सेमेस्टर में यहां उपनिषद की कक्षाएं आरम्भ करने जा रहे हैं, जबकि पाणिनी के संस्कृत व्याकरण से सम्बन्धित कुछ प्रोजेक्ट्स अन्य यूरोपीय विश्वविद्यालयों में विचाराधीन हैं, ताकि उन्हें भी आरम्भ किया जा सके। इसे लेकर यूरोप के भाषा-विज्ञानियों में खासा उत्साह है ! प्रोफ़ेसर माईकल्स कहते हैं कि क्या आप अपने पुरातत्व वस्तुओं, प्राचीन महलों, अजंता, कोणार्क, हम्पी जैसे ऐतिहासिक स्मारकों का संरक्षण नहीं करते हैं ? तो फिर आप लोग भारत में होकर भी विश्व सभ्यता की सबसे पहली वैज्ञानिक और समृद्ध भाषा का संरक्षण करने में कोताही क्यों बरत रहे हैं ? हारवर्ड, कैलिफोर्निया और इंग्लैण्ड के अन्य विश्वविद्यालयों में संस्कृत के अधिकांश प्रोफ़ेसर हम जर्मन लोग हैं। रेडियो पर संस्कृत भाषा में सबसे पहले समाचार पढ़ना भारत से भी पहले, हमारे जर्मनी के “रेडियो डायचे वैले” ने शुरू किया था !
आयरलैंड के एक विद्यालय में संस्कृत के विभाग अध्यक्ष हैं, Rutger Kortenhost. उन्होंने वहां के पालकों के साथ एक मीटिंग में जो विचार व्यक्त किए हैं… उन्हें पढ़िए… कोर्तेन्होस्ट संस्कृत के बारे में विस्तार से बताते हैं, और हमारी आँखें खुली की खुली रह जाती हैं… “…देवियों और सज्जनों, हम यहां एक घंटे तक साथ मिल कर यह चर्चा करेंगे कि जॉन स्कॉट्टस विद्यालय में आपके बच्चे को संस्कृत क्यों पढऩा चाहिए ? मेरा दावा है कि इस घंटे के पूरे होने तक आप इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे, कि आपका बालक भाग्यशाली है जो संस्कृत जैसी असाधारण भाषा उसके पाठ्यक्रम का हिस्सा है ! सबसे पहले हम यह विचार करते हैं कि संस्कृत क्यों पढ़ाई जाए ? आयरलैंड में संस्कृत को पाठ्यक्रम में शामिल करनेवाले हम पहले विद्यालय हैं। ग्रेट ब्रिटेन और विश्व के अन्य हिस्सों में जॉन स्काट्टस के ८० विद्यालय चलते जहां संस्कृत को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। दूसरा सवाल है कि संस्कृत पढ़ाई कैसे जाती है ? आपने ध्यान दिया होगा कि आपका बच्चा विद्यालय से घर लौटते समय कार में बैठे हुए मस्ती में संस्कृत व्याकरण पर आधारित गाने गाता होगा ! मैं आपको बताना चाहूंगा कि भारत में अध्ययन करने के समय से लेकर आज तक संस्कृत पढ़ाने को लेकर हमारा क्या दृष्टिकोण रहा है। परंतु पहला सवाल है संस्कृत क्यों ? इसका उत्तर देने से पहले हमें संस्कृत के गुणों पर ध्यान देना होगा। अपनी आवाज की सुमधुरता, उच्चारण की शुद्धता और रचना के सभी आयामों में संपूर्णता के कारण यह सभी भाषाओं से श्रेष्ठ है ! यही कारण है कि अन्य भाषाओं की भांति मौलिक रूप से कभी भी इसमें पूरा परिवर्तन नहीं हुआ। मनुष्य के इतिहास की सबसे पूर्ण भाषा होने के कारण इसमें परिवर्तन की कभी कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ी… !”
कहने का तात्पर्य यह है कि यूरोप (और खासकर जर्मनी), संस्कृत शिक्षा, भारतीय विद्या, वेद-पुराणों-उपनिषदों-व्याकरण पर अच्छा खासा काम कर रहा है, परंतु दुर्भाग्य से भारत में इसके प्रति जागरूकता नहीं के बराबर है। क्या यह चिंता का विषय नहीं होना चाहिए ? क्या आज से पचास-सौ वर्ष बाद भारत के विद्वानों को को जर्मनी में संस्कृत ग्रंथों पर आधारित शोध पत्रों का सन्दर्भ देना होगा ?