श्रीमद्भगवद्गीता से ही आजादी की सफलता
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||ॐ||
भारत में अंग्रेज व्यापारी बनकर आये और यहाँ के निवासियों का भोलापन देख उनमें फूट डालकर क्रमशः सम्पूर्ण भारत को अपना उपनिवेश बना लिया। इतने से ही संतोष नहीं हुआ तो भारत को अपने साम्राज्य में मिला मिला। आपकी धरती पर आपके पूर्वजों को कोड़े मारकर, आधा पेट खिलाकर काम लेने लगे।
इस अत्याचार का विरोध भारतीयों ने किया, जिसका संगठित नाम पड़ा 'भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस'। उस समय सम्पूर्ण देश की यही एकमात्र पार्टी थी। विरोध ज्यों-ज्यों उग्र होता गया, इन आंदोलनकारियों को फाँसी पर चढ़ाया जाने लगा। जलियाँवाला नरसंहार तक हुआ किन्तु स्वतंत्रता की चिंगारी प्रज्वलित ही होती गयी। भेदभाव से मुक्त होकर सम्पूर्ण भारतवासी इस आंदोलन में एकजुट हुए। उनके एकता की आधारशिला थी 'गीता'। हर कांग्रेसी के हृदय में 'गीता' थी और जुबान पर गीता के श्लोक थे-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोsपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
(गीता, 2/22)
अर्थात् शरीर एक वस्त्र है। जीर्ण वस्त्र फेंककर जैसे आप नया वस्त्र धारण करते हैं ऐसे ही भूतादिकों का स्वामी यह जीवात्मा जीर्ण-शीर्ण शरीररूपी वस्त्र त्यागकर नया शरीर धारण कर लेता है। वह मरता नहीं, अविनाशिस्वरूप है। हम वही हैं, हो जाने दो फाँसी! हम पुनः जन्म लेंगे और आजादी प्राप्त करेंगे।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने जेल में 'गीता' की टीकाएँ लिखीं। लोकमान्य तिलक ने 'गीता रहस्य' लिखा। गाँधीजी ने भी 'गीता' पर टीका लिखीं। विनोबा भावे, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन सबने 'गीता' पर लिखा। नेहरू जी ने भी गीता की अनुशंसा की। उस समय 'गीता' कांग्रेसियों के मन-मस्तिष्क में छायी हुई थी।
भारतीयों में फूट डालने के लिए अंग्रेजों ने साम्प्रदायिक निर्वाचन और अछूतिस्तान बनाने की चाल चली। लेकिन गाँधी जी ने उनकी चाल को कामयाब नहीं होने दिया। पूरा भारत गाँधी जी के पीछे चलने लगा। हिन्दू-मुसलमान सभी एक होकर साथ चलने लगे। एकता की यह प्रेरणा मिली 'गीता' से। भारत को आजादी के दरवाजे तक ले आयी यह 'गीता'।
गाँधीजी ने बार-बार कहा- "मेरा सारा बल 'गीता' है। मैं जब दुःखी होता हूँ, गीतामाता की शरण जाता हूँ, तुरन्त समाधान मिलता है। मेरे पास जो कुछ है, 'गीता' की देन है।"
लगभग पचास वर्षों तक गाँधी जी की वेशभूषा- एक हाथ में गीता, एक हाथ में लकुटी, कंधे पर दुपट्टा और कमर में लटकती घड़ी। यही उनकी वेशभूषा रही है चाहे वे जेल में रहे हों या अनशन पर अथवा वायसराय की मीटिंग में। गाँधी जी ने गीता को कभी नहीं छोड़ा। जाति-पाँति में बँटकर आजादी कभी नहीं मिलती। इन्हीं फूट के अस्त्रों का प्रयोग कर अंग्रेज कामयाब हो गये। किन्तु भारतीयों को सफलता मिली एकता से और एकता मिली 'गीता' से।
जब आजादी आयी, कुर्सियों पर दृष्टि पड़ी तो धर्म-निरपेक्षता का नारा लगाने लगे। गाँधीजी के हाथ से 'गीता' हटा दी गयी। 'गीता' हाथ में होने से दो-चार वोट कम न मिले, इस भय से गीता का नाम तक लेना बन्द कर दिया। 'गीता' स्कूलों में पढ़ायी जाती थी तो श्लोक हटा दिये गये। गाँधीजी की मूर्ति खड़ी की गई तो उनके हाथ में केवल एक लकड़ी! यह तो गाँधीजी की मूर्ति ही नहीं है गीताविहीन। इतिहास तो जो है वह रहेगा, उसे तोड़ने-मरोड़ने का किसी को क्या अधिकार है? गाँधीजी को 'राष्ट्रपिता' की उपाधि तो दी गयी किन्तु उस राष्ट्रपिता की प्रेरणा, ऊर्जा, राष्ट्रीयता के उत्स 'गीता' का नाम तक भुला दिया गया कि धर्म-निरपेक्षता पर कहीं कोई अंगुली न उठा दे।
भारत धर्मनिरपेक्ष है तो धर्मनिरपेक्ष शास्त्र 'गीता' है। 'गीता' किसी एक मज़हब का शास्त्र नहीं है। सम्पूर्ण 'गीता' में कहीं भी हिन्दू शब्द नहीं आया है इसलिए यह केवल हिन्दुओं का न होकर मानव-मात्र का अतर्क्य शास्त्र है। 'गीता' में सम्पूर्ण विश्व का प्रवेश है। यह विश्व-संहिता है। यह भारत में जन्मी है, इसलिए भारत का राष्ट्रीय ग्रन्थ है किन्तु है विश्व का ग्रन्थ, विश्व की धरोहर, विश्व-दर्शन। यह विश्व की धरोहर लुप्त न हो जाय, इसलिए इसे प्रकाश में लाएँ। जिस गीता ने आपको आजादी दी है, वह आपको स्थायित्व भी देगी। *भेदभाव से मुक्त इस ग्रन्थ को पाठ्यक्रम में स्थान दें तो अगली पीढ़ी समता के धरातल पर एक थाल में भोजन करने लगेगी और सभी एक माँ की संतान तथा एक पिता के पुत्र कहलायेंगे।*
इसलिए समस्त भारतवासियों का दायित्व है कि अपनी भूल को सुधार लें, अपने बिखरे गौरव को उठा लें। आज राष्ट्र धर्मशास्त्र-विहीन हो भटक रहा है। विश्व में छोटा-सा भी कोई राष्ट्र है तो उसका अपना राष्ट्रीय ग्रंथ; किन्तु भारत के पास राष्ट्रीय ग्रन्थ नहीं है। अस्तु भगवान् श्रीकृष्णोक्त 'संस्कृत गीता' के हिन्दी भाष्य 'यथार्थ गीता' को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर मानव मात्र को शान्ति प्रदान करें। इसे संसद के पटल पर रखें, संयुक्त राष्ट्रसंघ में प्रस्तावित करें और विश्व की धरोहर विश्व को सौंप दें। कृपया राष्ट्र को एकता-समानता का ग्रन्थ प्रदान करें।
इस यश पर पहला हक आपका है और यह कार्य सरल है; क्योंकि इसका कोई विरोधी नहीं है। यह जिस समय कही गयी थी, आज के प्रचलित मज़हबों में से उस समय कोई भी अस्तित्व में नहीं था। 'गीता' उस समय भी विश्व-मानव को सम्बोधित करते हुए कही गयी थी और आज भी 'श्रीमद्भगवद्गीता' भाष्य 'यथार्थ गीता' विश्व के सम्पूर्ण मानव मात्र के लिए उपलब्ध है। मानव मात्र की समस्त समस्याओं का समाधान 'श्रीमद्भगवद्गीता' से सम्भव है। देखें 'यथार्थ गीता'।
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