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Yatharth Sandesh
26 Aug, 2017(Hindi)
Ancient Bhartiya Culture

आर्य भट्ट ने शून्य का आविष्कार नहीं,शून्य पर आधारित दाशमिक प्रणाली दिया था

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सोसल मीडिया में एक पोस्ट चल रहा है कि यदि आर्यभट्ट ने शून्य का आविष्कार किया था,तो रावण के दस सिरों की गणना कैसे हुई थी? महाभारत काल मे कौरवों के 100 भाइयों की गणना कैसे हुई थी?

ऐसा कहने वालों का मत है कि जब 05 वीं शताब्दी में आर्यभट्ट ने शून्य का आविष्कार किया तो,रामायण,महाभारत,इसके बाद ही लिखी गयी है और यदि इसके सैकड़ों साल पहले अगर लिखी गयी है तो सिद्ध किया जाय कि आर्य भट्ट ने शून्य का आविष्कार नहीं किया था।

अब एक वाणिज्य के प्रोफेसर श्री अनिल कुमार यादव ने भी यह प्रश्न किया है जिसे हमारे एक भूतपूर्व छात्र,श्री मनोज द्विवेदी ने हमें भेजा है।

दर असल सोशल मीडिया में लोग
ज्ञान वर्धन नहीं करते,मनोरंजन करते हैं और हिन्दू धर्म को हेय दिखाने की कोशिश करते हैं।आरक्षण से नौकरी प्राप्त लोगों ने ये विवाद जन्म दिया है।

मुख्य विवाद शून्य और दस की संख्या का है।विश्व मे कहीं भी पहले मन मे भाव आये।भाव से शब्द बने।अंक तो गणना के लिए बाद में प्रतीकों के रूप में आये।जिस समय जितनी समझ थी,उसी प्रकार प्रतीक बनाकर,उसे ही अंक मानकर गणना किया गया।

भारत मे संस्कृत ज्ञात सबसे प्राचीन भाषा है।संस्कृत में गणना के मूल शब्द शुन्यम,एकः एका एकम,द्वौ दवे,त्रयः त्रीणि ,चत्वारः, पंच, षष्ठ,सप्त,अष्ट,नव,दस,शत, ये सब प्रारम्भ से रहे हैं।

ऋग्वेद में पुरुष सूक्त में सहस्र सिर,सहस्र आंख,सहस्र पैर,दस अंगुल शब्द लिखे हैं।यजुर्वेद से निकले ईश उपनिषद में सौ वर्ष जीने की बात लिखी है।अथर्व वेद में सौ शरद जीना लिखा है।पाणिनि ने अष्टअध्यायी में अंकों के शब्द रूपों का सूत्र भी लिखा है।

ये सब आर्यभट्ट से बहुत पहले हुए हैं। इसका मतलब भारत मे गणना के अंक शब्दों में थे। बाद में अलग अलग समय पर इन शब्दों के लिए प्रतीकों से गणना किया गया।तो जब शब्द थे,तो रावण के दस सिर व कौरव के सौ पुत्र निश्चित रूप से गिने गए होंगे और रामायण महाभारत आर्य भट्ट से बहुत पहले लिखा गया होगा।हाँ उस समय शून्य अंक नहीं रहा होगा।

यह शून्य आर्य भट्ट से पहले ही था।शून्य दार्शनिक विचारों में हर समय रहा है।शून्य का मतलब ब्रह्म होता है।आर्य भट्ट से पहले नागार्जुन का शून्यवाद आ गया था।आर्य भट्ट ने शून्य का आविष्कार नहीं,शून्य पर आधारित दाशमिक प्रणाली दिया था।एक बात और जान लेना चाहिए कि पाश्चात्य चिंतन के दर्शन में पृथ्वी जल अग्नि वायु, ये चार ही मूल तत्व है।

यही चार्वाक दर्शन में भी है।लेकिन भारतीय वैदिक दर्शन में इनके अलावा पांचवा तत्व आकाश है।यही शून्य है,मतलब नथिंग।कुछ भी नहीं।शून्य को आत्मसात करने के लिए हमें ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में जाना होगा।जब कुछ भी नहीं था तो क्या था-
नासदीय सूक्त,ऋग्वेद,दसम मण्डल,सूक्त संख्या 129
नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥

अन्वय- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्।

अर्थ- उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे।

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥

अन्वय-तर्हि मृत्युः नासीत् न अमृतम्, रात्र्याः अह्नः प्रकेतः नासीत् तत् अनीत अवातम, स्वधया एकम् ह तस्मात् अन्यत् किञ्चन न आस न परः।

'अर्थ – उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्री और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।
तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥३॥

अन्वय -अग्रे तमसा गूढम् तमः आसीत्, अप्रकेतम् इदम् सर्वम् सलिलम्, आःयत्आभु तुच्छेन अपिहितम आसीत् तत् एकम् तपस महिना अजायत।

सृष्टिके उत्पन्नहोनेसे पहले अर्थात् प्रलय अवस्था में यह जगत् अन्धकार से आच्छादित था और यह जगत् तमस रूप मूल कारण में विद्यमान था,अज्ञात यह सम्पूर्ण जगत् सलिल=जल रूप में था। अर्थात् उस समय कार्य और कारण दोंनों मिले हुए थे यह जगत् है वह व्यापक एवं निम्न स्तरीय अभाव रूप अज्ञान से आच्छादित था इसीलिए कारण के साथ कार्य एकरूप होकर यह जगत् ईश्वर के संकल्प और तप की महिमा से उत्पन्न हुआ।
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥

अन्वय-अग्रे तत् कामः समवर्तत;यत्मनसःअधिप्रथमं रेतःआसीत्, सतः बन्धुं कवयःमनीषाहृदि प्रतीष्या असति निरविन्दन
अर्थ – सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय सब से पहले काम=अर्थात् सृष्टि रचना करने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुयी, जो परमेश्वर के मन मे सबसे पहला बीज रूप कारण हुआ; भौतिक रूप से विद्यमान जगत् के बन्धन-कामरूप कारण को क्रान्तदर्शी ऋषियो ने अपने ज्ञान द्वारा भाव से विलक्षण अभाव मे खोज डाला।
तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥

अन्वय-एषाम् रश्मिःविततः तिरश्चीन अधःस्वित् आसीत्, उपरिस्वित् आसीत्रेतोधाः आसन् महिमानःआसन् स्वधाअवस्तात प्रयति पुरस्तात्।

पूर्वोक्त मन्त्रों में नासदासीत् कामस्तदग्रे मनसारेतः में अविद्या, काम-सङ्कल्प और सृष्टि बीज-कारण को सूर्य-किरणों के समान बहुत व्यापकता उनमें विद्यमान थी। यह सबसे पहले तिरछा था या मध्य में या अन्त में? क्या वह तत्त्व नीचे विद्यमान था या ऊपर विद्यमान था? वह सर्वत्र समान भाव से भाव उत्पन्न था इस प्रकार इस उत्पन्न जगत् में कुछ पदार्थ बीज रूप कर्म को धारण करने वाले जीव रूप में थे और कुछ तत्त्व आकाशादि महान रूप में प्रकृति रूप थे; स्वधा=भोग्य पदार्थ निम्नस्तर के होते हैं और भोक्ता पदार्थ उत्कृष्टता से परिपूर्ण होते हैं।
को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥


अन्वय-कः अद्धा वेद कः इह प्रवोचत् इयं विसृष्टिः कुतः कुतः आजाता, देवा अस्य विसर्जन अर्वाक् अथ कः वेद यतः आ बभूव।

अर्थ - कौन इस बात को वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने के विवरण को बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुयी। देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते इसलिए कौन मनुष्य जानता है जिस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ।
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥७॥

अन्वय- इयं विसृष्टिः यतः आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। अस्य यः अध्यक्ष परमे व्यामन् अंग सा वेद यदि न वेद।
अर्थ – यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुयी इस का मुख्या कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरुप में प्रतिष्ठित है। हे प्रिय श्रोताओं ! वह आनंद स्वरुप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है।

तो जो यह आर्य भट्ट के शून्य की बात है,यह भारतीय शून्य का व्यावहारिक प्रयोग है।मतलब एक शक्ति भारत मे थी,जो दाहिनी ओर आ जाये तो शक्ति दस गुनी हो जाएगी,बाई ओर चली जाय तो निशक्त की स्थिति।इसी ब्रह्म रूप को गोलाकार शून्य प्रतीक में लाया गया और इस प्रकार भारतीय आर्यभट्ट नामक ब्राह्मण ने विश्व व्याप्त विभिन्न गणना के प्रतीकों को समाप्त कर एक कार दिया।

वेदान्त ने बताया दिया कि सबमे आत्मान एक ही है।

अगर हम शब्दों की बात करें,तो आर्य भट्ट से बहुत पहले कपिल मुनि ने सांख्य में 25 तत्व बता दिया था।इसका मतलब अंकों का शब्द ज्ञान यहां शुरू से ही था।तो किसी के सरों की गणना, व्यक्तियों की गणना क्यों नहीं हो सकती थी।

अब कुछ उदारण प्रस्तुत करते हैं-
पश्येम शरदः शतम् ।।१।।
जीवेम शरदः शतम् ।।२।।
बुध्येम शरदः शतम् ।।३।।
रोहेम शरदः शतम् ।।४।।
पूषेम शरदः शतम् ।।५।।
भवेम शरदः शतम् ।।६।।
भूयेम शरदः शतम् ।।७।।
भूयसीः शरदः शतात् ।।८।।
(अथर्ववेद, काण्ड १९, सूक्त ६७)

जिसके अर्थ समझना कदाचित् पर्याप्त सरल है – हम सौ शरदों तक देखें, यानी सौ वर्षों तक हमारे आंखों की ज्योति स्पष्ट बनी रहे (१)। सौ वर्षों तक हम जीवित रहें (२); सौ वर्षों तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे, हम ज्ञानवान् बने रहे (३); सौ वर्षों तक हम वृद्धि करते रहें, हमारी उन्नति होती रहे (४); सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें, हमें पोषण मिलता रहे (५);

हम सौ वर्षों तक बने रहें (वस्तुतः दूसरे मंत्र की पुनरावृत्ति!) (६); सौ वर्षों तक हम पवित्र बने रहें, कुत्सित भावनाओं से मुक्त रहें (७); सौ वर्षों से भी आगे ये सब कल्याणमय बातें होती रहें (८)।
ईश उपनिषद यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का उपनिषद है,जो उपनिषदों में प्रथम स्थान रखता है।इसमें दूसरे श्लोक में लिखा है-
यहाँ इस जगत् में सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँ समा:।

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥2॥[
ऋग्वेद,दशम मण्डल,नब्बेवा सूक्त।पुरुष सूक्त,पहला मंत्र।
सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् |

स भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ||१||
जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्मांड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ||१||

मुहूर्त चिंतामणि में ही एक जगह नक्षत्रों में ताराओं की संख्या बताते हुए एक श्लोक है (नक्षत्र प्रकरण, श्लोक-58)
त्रित्र्यङ्गपञ्चाग्निकुवेदवह्नयः शरेषुनेत्राश्विशरेन्दुभूकृताः |
वेदाग्निरुद्राश्वियमाग्निवह्नयोSब्धयः शतंद्विरदाः भतारकाः ||

अन्वय - त्रि (3) + त्रय(3) + अङ्ग(6) + पञ्च(5) +अग्नि(3) + कु(1) + वेद(4) + वह्नय(3); शर(5) + ईषु(5) + नेत्र(2) + अश्वि(2) + शर(5) + इन्दु(1) + भू(1) + कृताः(4) | वेद(4) + अग्नि(3) + रुद्र(11) + अश्वि(2) + यम(2) + अग्नि(3) + वह्नि(3); अब्धयः(4) + शतं(100) + द्वि(2) + द्वि(2) + रदाः(32) + भ + तारकाः ||
यहाँ थोड़ी संस्कृत बता दूं भतारकाः का अर्थ है भ (नक्षत्रों) के तारे | तो यदि नक्षत्रों में तारे अश्विनी नक्षत्र से गिनें तो इतने तारे प्रत्येक नक्षत्र में होते हैं |

सन् 498 में भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलवेत्ता आर्यभट्ट ने आर्यभटीय ([ सङ्ख्यास्थाननिरूपणम् ]) में कहा है-
एकं च दश च शतं च सहस्रं तु अयुतनियुते तथा प्रयुतम् ।
कोट्यर्बुदं च वृन्दं स्थानात्स्थानं दशगुणं स्यात् ॥ २ ॥

अर्थात् "एक, दश, शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रयुत, कोटि, अर्बुद तथा बृन्द में प्रत्येक पिछले स्थान वाले से अगले स्थान वाला दस गुना है।

उक्त से स्पष्ट हो जाता है कि जो विवाद उछाला गया है,वह मूर्खों के प्रलाप के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
इन मूर्खों के विषय मे पहले ही भर्तृहरि ने लिख दिया है कि इन्हें ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते।

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