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Yatharth Sandesh
15 Jan, 2018(Hindi)
Ancient Bhartiya Culture

Aryabhatta – आर्यभट भारत के महान खगौलिय और गणितज्ञ (Mathematicians) थे।

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Aryabhatta – आर्यभट भारत के महान खगौलिय और गणितज्ञ (Mathematicians) थे। अपनी खगोलिय खोजों के बाद उन्होंने सार्वजनिक घोषणा की कि प्रथ्वी 365 दिन 6 घंटे 12 मिनट और 30 सेकेण्ड में सूर्य का एक चक्कर लगाती है। उनकी इस खोज की देश भर में सराहना हुई और उन्हें प्रोत्साहन मिला।

महान गणितज्ञ आर्यभट की जीवनी – Aryabhatta Biography in Hindi
आर्यभट 476 ईसा-पूर्व में कुसुमपुर (पटना) में जन्में और 550 ईसा-पूर्व में उनका निधन हुआ। 23 वर्ष की उम्र मेे उन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की। यह एक विलक्षण ग्रंथ है और संस्कृत में पद्यबद्ध है। इसमें 118 श्लोक है जो तात्कालिन गणित का संक्षिप्त विवरण है। आर्यभट के अनुसार प्रथ्वी एक महायुग में 1582237500 बार घुमती है।

आर्यभट ने गणित के नये-नये नियम खोजे। ऐसा प्रतित होता है कि वे शून्य का चिन्ह जानते थे। पाई का मान उन्होंने 3.1622 निकाला जो आधुनिक मान के बराबर ही है। आर्यभट ने बडी संख्याओं को संक्षेप में लिखने के लिए अक्षरांक विधी की खोज की, जैसे की 1 के लिए ’अ’, और 100 के लिए ’इ’ 10000 के लिए ’उ’ 10 अरब के लिए ’ए’ इत्यादि।

आर्यभट ने आकाश में खगोलिया पिण्ड की स्थिति के बारे में भी ज्ञान दिया। उन्होंने पृथ्वी के परिधी 24835 मिल बताई, जो आधुनिक मान 24902 मिल के मुकाबले बेहतरीन संभावित मान है।

आर्यभट का विश्वास था कि आकाशीय पिण्डों के आभासी घुर्णन धरती के अक्षीय घुर्णन के कारण संभव है। यह सौरमण्डल की प्रकृति या स्वभाव की महत्वपूर्ण अवधारणा है। परन्तू इस विचार को त्रुटिपूर्ण मानकर बाद के विचारकों ने इसे छोड दिया था।

आर्यभट सूर्य, पृथ्वी की त्रिज्या के संबंध में खगोलिया गृहों की त्रिज्या देते है। उनका मत है कि चन्द्रमां तथा अन्य गृह सूर्य से परावर्तित प्रकाश द्वारा चमकते है। आश्चर्यजनक रूप से वह यह विश्वास करते हैं कि ग्रहों की कथाएं अण्डाकार है।

आर्य भट ने सूर्य गृहण तथा चन्द्र गृहण के सही कारणों की व्याख्या की है , जबकि उनसे पहले तक लोग इन्हें गृहणों का कारण राक्षस राहु और केतू को मानते थे।

आर्यभट ने ज्योतिष के क्षेत्र में भी सबसे पहले क्रांतिकारी विचार लाये । आर्यभट पहले भारतीय वैज्ञानिक थे जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पृथ्वी अपनी दुरी पर घुमती है और नक्षत्रों का गोलक स्थित है। पौराणिक मान्यता के नुसार इसके विपरित थी। इसलिए बाद के वराहमिहिर, ब्रम्हगुप्त आदि ज्योतिषीयों ने इनकी इस सही मान्यता को भी स्वीकार नहीं किया।

आर्यभट विश्व की सृष्टि और इसके प्रलय चक्र में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने काल को अनादि तथा अनन्त माना है। वे निश्चित ही एक क्रांतिकारी विचारक थे। श्रुति, स्मृति और पुराणों की परंपरा के विरोध में सही विचार प्रस्तुत करके उन्होंने बडे साहस का परिचय दिया था। और भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान की स्वस्थ परंपरा स्थापित की।

आर्यभट ने अपने ग्रंथ में किसी ज्योतिषी, गणितज्ञ, या शासक का वर्णन नही किया। उनका आर्यभटीय नामक ग्रंथ भारतीय गणित और ज्योतिष का एक विशुद्ध वैज्ञानिक ग्रंथ है। उनके सम्मान में भारत ने अपने प्रथम कृत्रिम उपग्रह का नाम आर्यभट रखा।

खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमण्डलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिए नैनिताल के निकट एक स्थान का नाम आर्यभट प्रक्षेपण विज्ञान अनुसंधान संस्थान रखा गया। और दूसरो के वैज्ञानिक द्वारा सन् 2009 में खोजी गई एक बेक्टिरिया की प्रजाति का नाम उनके नाम पर बेसीलस रखा गया।

आर्यभट्ट
Aryabhatt Biography in Hindi
वैज्ञानिकआर्यभट्ट
जन्म: 476 कुसुमपुर अथवा अस्मक

मृत्यु: 550

कार्य: गणितग्य, खगोलशाष्त्री

आर्यभट्‍ट प्राचीन समय के सबसे महान खगोलशास्त्रीयों और गणितज्ञों में से एक थे। विज्ञान और गणित के क्षेत्र में उनके कार्य आज भी वैज्ञानिकों को प्रेरणा देते हैं। आर्यभट्‍ट उन पहले व्यक्तियों में से थे जिन्होंने बीजगणित (एलजेबरा) का प्रयोग किया। आपको यह जानकार हैरानी होगी कि उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘आर्यभटिया’ (गणित की पुस्तक) को कविता के रूप में लिखा। यह प्राचीन भारत की बहुचर्चित पुस्तकों में से एक है। इस पुस्तक में दी गयी ज्यादातर जानकारी खगोलशास्त्र और गोलीय त्रिकोणमिति से संबंध रखती है। ‘आर्यभटिया’ में अंकगणित, बीजगणित और त्रिकोणमिति के 33 नियम भी दिए गए हैं।

आज हम सभी इस बात को जानते हैं कि पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर घूमती है और इसी कारण रात और दिन होते हैं। मध्यकाल में ‘निकोलस कॉपरनिकस’ ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था पर इस वास्तविकता से बहुत कम लोग ही परिचित होगें कि ‘कॉपरनिकस’ से लगभग 1 हज़ार साल पहले ही आर्यभट्ट ने यह खोज कर ली थी कि पृथ्वी गोल है और उसकी परिधि अनुमानत: 24835 मील है। सूर्य और चन्द्र ग्रहण के हिन्दू धर्म की मान्यता को आर्यभट्ट ने ग़लत सिद्ध किया। इस महान वैज्ञानिक और गणितग्य को यह भी ज्ञात था कि चन्द्रमा और दूसरे ग्रह सूर्य की किरणों से प्रकाशमान होते हैं। आर्यभट्ट ने अपने सूत्रों से यह सिद्ध किया कि एक वर्ष में 366 दिन नहीं वरन 365.2951 दिन होते हैं।

प्रारंभिक जीवन
आर्यभट्ट ने अपने ग्रन्थ ‘आर्यभटिया’ में अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 (476) लिखा है। इस जानकारी से उनके जन्म का साल तो निर्विवादित है परन्तु वास्तविक जन्मस्थान के बारे में विवाद है। कुछ स्रोतों के अनुसार आर्यभट्ट का जन्म महाराष्ट्र के अश्मक प्रदेश में हुआ था और ये बात भी तय है की अपने जीवन के किसी काल में वे उच्च शिक्षा के लिए कुसुमपुरा गए थे और कुछ समय वहां रहे भी थे। हिन्दू और बौध परम्पराओं के साथ-साथ सातवीं शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ भाष्कर ने कुसुमपुरा की पहचान पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) के रूप में की है। यहाँ पर अध्ययन का एक महान केन्द्र, नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था और संभव है कि आर्यभट्ट इससे जुड़े रहे हों। ऐसा संभव है कि गुप्त साम्राज्य के अन्तिम दिनों में आर्यभट्ट वहां रहा करते थे। गुप्तकाल को भारत के स्वर्णिम युग के रूप में जाना जाता है।

कार्य
आर्यभट्ट के कार्यों की जानकारी उनके द्वारा रचित ग्रंथों से मिलती है। इस महान गणितग्य ने आर्यभटिय, दशगीतिका, तंत्र और आर्यभट्ट सिद्धांत जैसे ग्रंथों की रचना की थी। विद्वानों में ‘आर्यभट्ट सिद्धांत’ के बारे में बहुत मतभेद है । ऐसा माना जाता है कि ‘आर्यभट्ट सिद्धांत’ का सातवीं शदी में व्यापक उपयोग होता था। सम्प्रति में इस ग्रन्थ के केवल 34 श्लोक ही उपलब्ध हैं और इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में भी विद्वानों के पास कोई निश्चित जानकारी नहीं है।

आर्यभटीय

आर्यभटीय उनके द्वारा किये गए कार्यों का प्रत्यक्ष विवरण प्रदान करता है। ऐसा माना जाता है कि आर्यभट्ट ने स्वयं इसे यह नाम नही दिया होगा बल्कि बाद के टिप्पणीकारों ने आर्यभटीय नाम का प्रयोग किया होगा। इसका उल्लेख भी आर्यभट्ट के शिष्य भास्कर प्रथम ने अपने लेखों में किया है। इस ग्रन्थ को कभी-कभी आर्य-शत-अष्ट (अर्थात आर्यभट्ट के 108 – जो की उनके पाठ में छंदों कि संख्या है) के नाम से भी जाना जाता है। आर्यभटीय में वर्गमूल, घनमूल, समान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। वास्तव में यह ग्रन्थ गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है। आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं। इसमे सतत भिन्न (कँटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण (क्वड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला के योग (सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और ज्याओं की एक तालिका (Table of Sines) शामिल हैं। आर्यभटीय में कुल 108 छंद है, साथ ही परिचयात्मक 13 अतिरिक्त हैं। यह चार पदों अथवा अध्यायों में विभाजित है:

गीतिकपाद
गणितपाद
कालक्रियापाद
गोलपाद
आर्य-सिद्धांत

आर्य-सिद्धांत खगोलीय गणनाओं के ऊपर एक कार्य है। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, यह ग्रन्थ अब लुप्त हो चुका है और इसके बारे में हमें जो भी जानकारी मिलती है वो या तो आर्यभट्ट के समकालीन वराहमिहिर के लेखनों से अथवा बाद के गणितज्ञों और टिप्पणीकारों जैसे ब्रह्मगुप्त और भास्कर प्रथम आदि के कार्यों और लेखों से। हमें इस ग्रन्थ के बारे में जो भी जानकारी उपलब्ध है उसके आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह कार्य पुराने सूर्य सिद्धांत पर आधारित है और आर्यभटीय के सूर्योदय की अपेक्षा इसमें मध्यरात्रि-दिवस-गणना का उपयोग किया गया है। इस ग्रन्थ में ढेर सारे खगोलीय उपकरणों का भी वर्णन है। इनमें मुख्य हैं शंकु-यन्त्र, छाया-यन्त्र, संभवतः कोण मापी उपकरण, धनुर-यन्त्र / चक्र-यन्त्र, एक बेलनाकार छड़ी यस्ती-यन्त्र, छत्र-यन्त्र और जल घड़ियाँ।

उनके द्वारा कृत एक तीसरा ग्रन्थ भी उपलब्ध है पर यह मूल रूप में मौजूद नहीं है बल्कि अरबी अनुवाद के रूप में अस्तित्व में है – अल न्त्फ़ या अल नन्फ़। यह ग्रन्थ आर्यभट्ट के ग्रन्थ का एक अनुवाद के रूप में दावा प्रस्तुत करता है, परन्तु इसका वास्तविक संस्कृत नाम अज्ञात है। यह फारसी विद्वान और इतिहासकार अबू रेहान अल-बिरूनी द्वारा उल्लेखित किया गया है।

आर्यभट्ट का योगदान

आर्यभट का भारत और विश्व के गणित और ज्योतिष सिद्धान्त पर गहरा प्रभाव रहा है। भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले आर्यभट ने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘आर्यभटीय’ में प्रस्तुत किया है।

उन्होंने गणित के क्षेत्र में महान आर्किमिडीज़ से भी अधिक सटीक ‘पाई’ के मान को निरूपित किया और खगोलविज्ञान के क्षेत्र में सबसे पहली बार यह घोषित किया गया कि पृथ्वी स्वयं अपनी धुरी पर घूमती है।

स्थान-मूल्य अंक प्रणाली आर्यभट्ट के कार्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान थी। हालांकि उन्होंने शुन्य दर्शाने के लिए किसी प्रतीक का प्रयोग नहीं किया, परन्तु गणितग्य ऐसा मानते हैं कि रिक्त गुणांक के साथ, दस की घात के लिए एक स्थान धारक के रूप में शून्य का ज्ञान आर्यभट्ट के स्थान-मूल्य अंक प्रणाली में निहित था।

यह हैरान और आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि आजकल के उन्नत साधनों के बिना ही उन्होंने लगभग डेढ़ हजार साल पहले ही ज्योतिषशास्त्र की खोज की थी। जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं, कोपर्निकस (1473 से 1543 इ.) द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत की खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले ही कर चुके थे। “गोलपाद” में आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है।

इस महान गणितग्य के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है। आर्यभट्ट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 39,968.0582 किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान 40,075.0167 किलोमीटर से केवल 0.2 % कम है।

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