विजय दशमी का स्वरुप
/
0 Reviews
/ Write a Review
1855 Views
प्रत्येक पर्व चाहे राष्ट्रीय हो या धार्मिक लोग एक दूसरे को बधाई देते हैं। धन्यवाद देते हैं, मुबारक बाद देते हैं। मनुष्यों के पास कुछ रटे रटाये शब्दकोष होते हैं। दुख के अवसरों पर दुख प्रकट करने वाले खुशी के अवसर पर खुशी प्रकट करने वाले, किसी के घर जाकर या मंच से किसी के निधन पर किसी ने प्रसन्नता प्रकट की हो ऐसा कभी न हुआ है, न हो सकता है। कुछ रटे रटाये शब्द कोषों को दुहरा देने मात्र से कर्तव्य की पूर्ति नहीं होती न समस्याओं का हल ही होता है, लेकिन हजारो वर्षाे से कुछ ऐसा ही होता आ रहा है, कि मनुष्य रंगमंच के नाटक की तरह शोक के समय शोक प्रकट करता है। प्रसन्नता के समय प्रसन्नता, ऐसा करते हुए जन्म दर जन्म बीत चुके हैं, केवल अच्छे एवं बुरे लोगों का इतिहास ही शेष है। मात्र चर्चा करने के लिए समाज को अपनत्व दिखाने के लिए कुछ बुद्धिजीवी चर्चा के बीच अलंकारिक शब्दों का प्रयोग करते हैं तो कुछ साधारण शब्दों से काम निकाल लेते हैं लेकिन इतिहास पर चर्चा करने वालों से शोक या प्रसन्नता प्रकट करने वालों से यदि प्रश्न किया जाय कि आप क्या बनाना चाहते हैं? इतिहास से सबक लेकर या शोक दिवस या प्रसन्नता दिवस से सबक लेकर आप किस प्रकार के समाज का निर्माण करना चाहते हैं? भविष्य में आने वाली पीढ़ी आपको किस दृष्टिकोण से देखेगी? जैसे आज शोक या प्रसन्नता प्रकट करते समय संबंधित व्यक्ति को देखते हैं?
आपके हाथ में सत्ता है, कानून, नियम बनाने का अधिकार है। क्यों न जनहित में सौहार्द्र पूर्ण वातावरण बनाने के लिए पूर्व में हुए श्रेष्ठ ऐतिहासिक महापुरूषों की भांति जिनके जन्मदिन एवं बलिदान दिवस पर शोक सभाये एवं हर्ष सभाएं होती है।
किसी के प्रति उदगार व्यक्त करने मात्र से क्या कर्तव्य की पूर्ति हो जाती है? बड़ी-बड़ी सभायें अर्जित करके मात्र शब्दों के आश्वासन या शब्दों के आदान प्रदान से समाज को सही दिशा नहीं मिलेगी। जबकि यही मुख्य उद्देश्य उन महापुरूषों का था जिनके जन्मदिन या बलिदान दिवस पर प्रतिवर्ष सब एकत्रित होकर उनके प्रति सहानूभुति प्रकट करते हैं। उन महापुरूषों का यही उद्देश्य था कि हमारे जीवन से हमसे पीछे वाले प्रतिनिधि जनहित एवं आत्मा के हित को ध्यान में रखकर अपने पीछे वालों के लिए एक आदर्श प्रस्तुतकर इस परम्परा को बनाऐ रखकर अपने कर्तव्य का पूर्ण रूपेण निर्वाह करते रहेेंगें। ऐसा न करके हम सभी उनका अपमान ही तो कर रहे हैं। क्या किसी के आदेश को, सिद्धांत को न मानना उसका सम्मान कहा जा सकता है किसी भी ऐतिहासिक महापुरूष को याद करने के लिए जब हम एकत्रित होते हैं तो सर्वप्रथम अपने अतःकरण में हमें झाँककर देखना चाहिये कि जिन महापुरूषो का हम बलिदान दिवस या जन्मदिवस मनाने के लिए एकत्रित हुए हैं उनके पदचिन्हों पर हम कितना चल रहे हैं। उनके लिए हृदय में स्थान कितना है। यदि उनके पद चिन्हों पर हम नहीं चल रहे तो क्या यह उत्सव सभाएँ या शोक सभाएँ मात्र दिखावा नहीं होगी? शायद लोकप्रियता का इससे आसान कुछ मार्ग भी नहीं दिखाई देता।
आज विजय दशमी है सभी बुद्धिजीवी इस पर्व को असत्य पर सत्य की विजय के रूप में देखते हैं और कहते भी हैं लेकिन असत्य को मिटाने के लिए, अधर्म को मिटाने के लिए असुरों को मिटाने के लिए कभी किसी को संगठित करने का प्रयास किया गया? जैसा कि भगवान श्री राम ने अधार्मिक लोगो को समूल नष्ट करके सुख शान्ति का माहौल पैदा करके सबको सुरक्षित एवं निर्भय कर दिया था।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उसकी कुछ उपलब्धियाँ होती हैं, जिनके लिये उन्हें याद किया जाता है उनके पोस्टर लगाये जाते हैं, चैराहे में एवं मन्दिरों में रखा जाता है पीछे वाले उनके अनुयायी होने का प्रदर्शन भी करते हैं झांकी निकालकर, सभाएं करके, अपने आपको संबंधित चिन्ह एवं भेष भूषा पहन कर किसी के अनुयायी होने का इतना ही प्रमाण नहीं है। जितना पीछे वाले करते हैं, बल्कि उन्हीं की तरह अन्याय को अराजकता के, अनैतिकता के, कुरीतियों के, बढ़ते हुए कदमों को रोककर सच्चाई की, सौहार्द्र की और सहृदयता की मशाल बनकर जलना है। जिससे हजारों मशालें जलाई जा सकंे और पीछे वालों को उस जलती मशाल से रोशनी मिल सके, ताकि वह अपने जीवन को भली प्रकार देख सकें और स्वयं को एक मशाल बनने के लिए तैयार कर सकें।
विजय दशमी का पर्व सम्पूर्ण मानव जाति को ऐसा ही संदेश दे रहा है यदि इस संदेश पर सभी राष्ट्र प्रतिनिधि औपचारिकता तक सीमित न रहकर पर्व में निहित यथार्थता पर ध्यान देकर अमल में लाते तो हजारों लोगों के जीवन को, घरों को तबाही से बचाया जा सकता था। बचाया जा सकता है। जब-जब आसुरी शक्तियाँ जन जीवन की तबाही का कारण बनी हैं आतंक की चरम सीमा में चारों तरफ भय का वातावरण व्याप्त हुआ है, तब-तब आतंकित नागरिकों को इस भय से त्राण दिलाने के लिए मनुष्यों के दुःख दर्द को समझने वाले भगवान श्री राम जैसे जनप्रतिनिधियों ने एक सशक्त संगठन तैयार करके भय एवं दःुखों के कारणों को निर्मूल करने का प्रयास किया, जिसके फलस्वरूप ऐसे प्रतिनिधियों के प्रति आज भी अपार श्रद्धा है जब तक मानव जाति रहेगी ऐसे प्रतिनिधि तब तक जीवित रहेंगे तथा उनके सदैव ऋणी रहेंगे।
भारतीय ऋषियों ने इन ऐतिहासिक घटनाओं के माध्यम से संसार के लोगों को एक ऐसा अमर संदेश देने का प्रयास किया है कि जिसे समझकर कोई भी मनुष्य भौतिक समृद्धि के साथ अमरत्व को प्राप्त करके सदैव के लिए समस्या मुक्त एवं दुख रहित जीवन प्राप्त करे, क्योंकि बाहरी समृद्धि की चरम सीमा तक पहुंचने वाले व्यक्ति को एक दिन उस समृद्धि से हाथ धोना पड़ता है, इस भौतिक समृद्धि से अनुकूल जीवन भी नहीं प्राप्त होता, सर्वशक्ति सम्पन्न व्यक्ति को भी विवशता का जीवन जीते देखा जाता है। इससे ऊठकर भली प्रकार इसके परिणाम को समझकर जब मनुष्य इससे आगे के सत्य को जानना चाहता है तथा अपनी उपलब्धि को स्थाई बनाने का विचार आता है तो उसे क्या करना चाहिये? बस यहीं से ऋषियों के दर्शन की शुरूवात होती हैं जिसे अपनी अत्यंत सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ऐतिहासिक घटनाओं में समावेश करके मानव जाति को अपना ऋणी बना लिया है। यदि ऋषियों ने ऐसा न किया होता तो शायद मानव जाति को कभी सुख शान्ती के दर्शन नहीं हो पाते, ना अपने जीवन में कभी स्थायित्व ही प्राप्त कर पाते। जैसे भविष्य में आने वाली पीढ़ी मिलावट के कारण असली दूध, घी की पहचान खो देगी, वैसे ही शनैः शनैः लोग वास्तविक जीवन को भूल जाते, भौतिक उपलब्धि के अतिरिक्त कुछ और भी हैं जो जीवन हम जी रहे हैं क्या इससे अच्छा जीवन और भी कहीं है? शायद बस इस पर कभी किसी का विचार ही नहीं होता, वास्तविक जीवन तथा उपलब्धि का बोध प्रत्येक व्यक्ति को हो इसी दृष्टिकोण से भारतीय ऋषियों ने ऐतिहासिक घटनाओं में कुछ रहस्य पूर्ण एवं आश्चर्य पूर्ण घटनाओं का समावेश करके बुद्धिजीवियों को वास्तविकता पर विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है।
रावण के बारे में शायद सभी जानते होंगे जिसके निधन की खुशी में विजय दशमी मनाते हैं। वह लंका में रहता था अमानवीयता की सारी सीमाओं को पार कर चुका था, इस आतातयी के अंत को अब सभी विजयदशमी के रूप में मनाते हैं इस पर्व की खुशी में शामिल होना एक बात को सिद्ध करता है कि आतातायी को कोई नहीं चाहता उससे अपने पराये सबको खतरा है इसलिए आततायी का अंत देखकर सब खुशियां मनाते हैं लेकिन ऐसा आवश्यक भी नहीं है कि दुनियां में होने वाले पर्वों में सब खुशियां मनाते हैं उस दिन किसी के जीवन में, परिवार में मातम भी मनता है क्योंकि यह जीवन समस्याओं से घिरा हुआ है पता नहीं कब कोई समस्या आकर जीवन को अंधकारमय बना दे, हमारे जीवन में कभी अंधकार न आये यही प्रयास ऋषियों ने किया है।
अब आप वास्तविकता पर थोड़ा विचार करें बाहर लड़ाइयां सदैव से होती रही हैं, होती रहंेगी इस संसार में जीतने वाले की भी एक दिन पराजय होती है, विश्व विजय का स्वप्न देखने वालों का आज कहीं नामों निशान नहीं है। जरासन्ध, शिशुपाल तथा कालयावन इत्यादि सर्वशक्ति सम्पन्न नरेशों ने भगवान श्री कृष्ण को युद्ध के मैदान से सत्रह बार भगाने के बाद भी अंत में पराजित हुए। विश्व विजेता रावण भी एक दिन पराजित हुआ। संसार में आज विजय तो कल पराजय निश्चित है। आज धनवान तो कल निर्धन, आज सबल तो कल दुर्बल होना निश्चित है। यही प्रकृति का नियम है लेकिन जिसने मन सहित दशों इन्द्रियों को तथा इनके अंतराल में निवास करने वाले आंतरिक शत्रुओं काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि को जीत लिया उसकी फिर कभी पराजय नहीं होगी।
प्रत्येक मनुष्य यही सोचता है कि जो मेरे पास है उसका कभी वियोग न हो तथा मुझे कभी असफलता का मुँह न देखना पड़े, लेकिन समस्त प्रयासों के बाद सारी शक्ति लगाने के बाद भी रावण की तरह एक दिन प्रत्येक व्यक्ति को समस्त उपलब्धियों से हाथ धोना पड़ता है।
वास्तविकता पर ध्यान केन्द्रित करते हुए हम मूल विषय पर विचार करेगें जैसा कि सर्व विदित है। रावण के दश सिर एवं बीस भुजाएं थी, दो हाथ पैर व दो शिर वाले पैदा होने वाले बच्चों के लिए शल्य चिकित्सा का सहारा लेना पड़ता है उस समय ऐसी सुविधा भी नहीं थीं। यह दश सिर एवं बीस भुजावाला बच्चा विश्व के किसी आश्चर्य से कम नहीं होना चाहिये यह बच्चा तो कभी करवट लेकर सो नहीं सका होगा? क्योंकि नीचे वाले सिर पर नौ सिरों का भार रहता है जिसके दर्द से नींद आयगी भी नहीं, किसी व्यक्ति के ऊपर वजन रख दो वह कैसे सो सकेगा। दूसरी आश्चर्यमय बात यह है कि रावण जिस लंका में रहता था उसकी आबादी असंख्य थी।
सुत समूह जन परिजन नाती, गनै को पार निशाचार जाती।।
हनुमान जी के लंका जलाने के बाद इतनी बड़ी आबादी वाली लंका को ज्यों का त्यों दो दिन में वैसे ही बनाकर वेल बूटे नक्काशीदार बनाकर तैयार कर दिया।
जैसे कुछ हुआ ही न हो, अंगद जी तीसरे दिन जाकर लंका को ज्यों का त्यों पाया आज एक परिवार के रहने के लिए साधारण मकान विश्व का कोई भी कुशल शिल्पी दो दिन में नहीं तैयार कर सकता है उस समय इतनी बड़ी लंका को उस अकेले शिल्पी ने वेलवूटों के सहित मात्र दो दिन में तैयार कर दिया था।
आज भी आप लंका को भारत के नक्शे के नीचे अंगूठे के बराबर के आकार में देखते हैं इतनी छोटी सी लंका में श्रीराम तथा रावण की अपार सेना कैसे आ गई आज वहाँ तमिलों के लिए जगह नहीं है इस बात को लेकर आये दिन संघर्ष होता ही रहता है।
लेकिन उस समय समुद्र भी सौ योजन अर्थात् बारह सौ किलोमीटर था यह नहीं कि पहले लंका बड़ी थी समुद्र में डूब गई होगी, इतनी छोटी सी जगह मंें भगवान श्री राम की अपार वानरी सेना तथा रावण की अपार आसुरी सेना कैसे आ गई इसके बाद लड़ने के लिए कुछ मैदान भी चाहिये जिससे शत्रुओं से उचित दूरी बनी रहे।
पदम अठारह यूथप बन्दर, अस मै श्रवण सुना दशकन्धर।।
वानर कटक उमा मैं देखा, सो मुरख जो करन चह लेखा।।
सुत समूह जन परिजन नाती, गनै को पार निशाचर जाती।।
अठारह पदम सेनापति थे श्रीराम की सेना में, इन सेनापतियों के अधीन इतनी सेना थी भगवान शिव कहते हैं वह मूर्ख है जो सेना की गणना करना चाहता है उसी लंका मे अपार ‘गनै को पार’ आसुरी जातियां थी एक-एक जाति में पता नहीं कितने निशाचर होंगे, आप विचार करें। जिस दिन इस संसार की आबादी एक पदम हो जायेगी उस दिन लोग चींटियों की तरह चलेंगें, आज विश्व की आबादी लगभग आठ अरब है, इतने में आवास एवं खाद्यान्न समस्या हैं तभी तो परिवार नियोजन हो रहा है सौ अरब का एक खरब होता है, सौ खरब का एक नील होता है सौ नील का एक पदम होता है ऐसे अठारह पदम सेनापति थे, क्या ऐसा सम्भव है इसलिए हमने कहा कि ऋषियों ने इन ऐतिहासिक घटनाओं के माध्यम से भौतिकवाद की चरम सीमा को परिलक्षित करके उसके परिणाम को दर्शाते हुए वास्तविक जीवन की तरफ सबको मोड़ने का प्रयास किया है।
जिस लंका में अपार आसुरी एवं वानरी सेना है, उस लंका का एवं उसमें एकत्रित सेना तथा वहां के निवासियों का स्वरूप कैसा है इस पर देखें-
वपुष ब्रह्माण्ड सुप्रवत्ति लंका - दुर्ग, रचित मन दनुज मय रूपधारी।
मोह दशमौलि, तदभ्रात अहंकार, पाकारिजित काम विश्रामहारी,
लोभ अतिकाय, मत्सर महोदर दुष्ट, क्रोध पापिष्ट विबुधांतकारी।।
प्रबल वैराग्य दारून प्रभंजन - तनय ........ (विनय पत्रिका)
वपुष ब्रह्माण्ड यह शरीर ही एक ब्रह्माण्ड है इसके अन्तराल में वृत्ति ही लंका है, जो मन रूपी मय दानव द्वारा निर्मित है मन में उठने वाले संकल्पों को वृत्ति कहा है यह संकल्प मैं मेरे पन की गांठ निर्मित करती है इसलिए मयदानव द्वारा निर्मित है इस शरीर के अन्तराल में दो वृत्तियां पुरातन हैं एक आसुरी वृत्ति दूसरी दैवी वृत्ति। आसुरी वृत्तियां अनन्त हैं तथा यह माया में विश्वास दिलाती हैं। जन्म-मृत्यु दुख का कारण बनाती है जीव को अनन्त शरीरों में बांधती हैं तथा दैवी सम्पति प्रभु में विश्वास दिलाकर शाश्वत सुख शांति के साथ मोक्ष का हेतु बनती है। यह दैवी सम्पत्ति भी अनन्त है। इन दोनों के मुख्य-मुख्य सेनापति हैं जिनके ऊपर दैवी एवं आसुरी सम्पति निर्भर है प्रथम आसुरी सेनापतियों को देखें-
व्यापि रहयो संसार में माया कटक प्रचंड।
सेनापति कामादि भट दंभ द्वेष पाखंड।।
मुख्य सेनापति जिन पर आसुरी सम्पत्ति टिकी है वह है काम, क्रोध, लोभ, मोह, दंभ, राग-द्वेष तथा पांखड इत्यादि इन्हीं विकारों से संबंधित अनन्त संकल्प ही अनन्त सेना है तथा दैवी सम्पत्ति के मुख्य सेनापति द्विविद्, मयंक, नील, नल, अंगद, गद, विगटास, दधिमुख, केहरि, निसठ, सठ, जामवंत, वैराग्य इत्यादि दैवी सम्पति के मुख्य आधार हैं इन सभी मुख्य वृत्तियों द्वारा दैवी सम्पत्ति सुरक्षित रहती है। बढ़ती रहती है। सम्पूर्ण वानरी सेना में जितने वानर थे वह सब देवता थे अर्थात् दैवी सम्पति,
ब्रह्म लोक तव विधि गये, देवन्ह यहई सिखाई।
वानर तनु धरि मही, हरि पद सेवहु जाई।।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता के सोलहवें अध्याय में दैवी एवं आसुरी लक्षणों को स्पष्ट करते हुए अर्जुन को आश्वस्त किया कि अर्जुन तू दैवी सम्पति को प्राप्त हुआ है तू मुझमें निवास करेगा तू शोक मत कर।
देवासुर संग्राम का सभी धर्माशास्त्र एवं महापुरूष एक स्वर से समर्थन करते हैं। सद्गुरू के निर्देशन में युद्ध करते-करते विकारों पर विजय प्राप्त करना वास्तविक विजय है। जिसके पीछे हार नहीं है, लेकिन युद्ध में जैसे एक कुशल योद्धा शत्रु के प्रत्येक पैंतरे एवं गतिविधि पर सतर्क दृष्टि रखता है। ऐसा न करने से उसकी पराजय की सम्भावना रहती है। वह बन्दी बनाया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार एक अध्यात्मिक योद्धा को इससे भी पैनी दृष्टि प्रत्येक संकल्प एवं विकारों पर रखते हुए लक्ष्य की तरफ बढ़ना पड़ता है। जो साधक इनके उतार-चढ़ाव को भली प्रकार जानता है, इसके प्रत्येक रूप को पहचानता है। वही पार पा सकता है-गोस्वामीजी ने कहा कि-
अब मै तोहि जान्यो संसार।
बांध न सकहि मोहि हरि के बल मोह कपट आगार।।
गोस्वामी जी कहते हैं कि अब यह विकार मुझे बन्दी नहीं बना सकते क्योंकि सद्गुरू प्रभु की कृपा का बल मुझे प्राप्त है। मैं इस संसार के परिणाम को तथा इसके अनन्त रूपों को, इसके उतार-चढ़ाव को भली प्रकार जानता हूं। संत कबीर भी ठीक यही बात कहते हैं कि -
ठगनिया क्या नैना मटकावै, यह कबिरा तेरे हाथ न आवै।
‘माया महाठगनी हम जानी’, यह माया अनेकों रूप बनाकर अच्छे-अच्छे साधकों को पथ भ्रष्ट कर देती है। लेकिन जो सद्गुरू कृपा एवं उनके निर्देशन में चलने वाले साधक हैं वह इसके प्रभाव से सुरक्षित रहते हैं। संत कबीर कहते हैं अरे माया ठगनी तू क्या आँखे मटका रही है। क्यों पैंतरा चला रही है? हम तेरे सभी रूपों से, सभी चालों से परिचित है। हम तेरे चक्कर में नहीं आने वाले हैं ‘‘कबिरा तेरे हाथ न आवै’’
यदि साधक जरा सा भी अवकाश अपने मन को दे देता है तो यह विकार शत्रु पथ के महान योद्धा उसे बन्दी बना लेते हैं। अपने आधीन करके अनन्त दुःख रूप योनियों में कैद रखते हैं शरीरों में बांधना यही बन्दी बनाना है।
जब मन सहित दसों इन्द्रियों की वर्हिर्मुखता ही ‘‘दशानन’’ है, जिसके दशांे मुख विषयोन्मुख हैं, ऐसा व्यक्ति स्वर्ण नगरी में रहे या स्वर्ग में सदैव अभावग्रस्त, तनावग्रस्त, चिन्ताग्रस्त जीवन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैै। ऐसा व्यक्ति चाहे कितनी ऊँचाई पर पहुँच जाय लेकिन राग-द्वेष एवं ईष्र्या की अग्नि में जलता रहता है। इस विभीषका से निकलने का मात्र संसार में एक ही मार्ग ‘नान्या पन्थाः विद्यते यनायः (श्वेताश्वतरोपनिषद्)’ है वह अपने मनसहित दशों इन्द्रियों को समेट कर पूर्ण अधिकार के साथ प्रत्येक संकल्प पर सतर्क दृष्टि रखते हुए, सद्गुरू की पूर्ण अनुकूलता के साथ विकारों को सर्वथा निर्मूल करके, स्वरूप प्राप्ति के साथ अपने जीवन के सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य की पूर्ति करता है।
दशों इन्द्रियों के संयम के साथ ही साधना (योग) की शुरूवात है तथा इनसे निर्मित सम्पूर्ण संस्कारों एवं विकारों की निर्मूलता में पूर्ण विजय है, मनसहित इन्द्रियों के प्रवाह को रोककर तथा इन पर पूर्ण विजय प्राप्त करके योगी स्वरूप को प्राप्त होता है यही वास्तविक विजय है दशों इन्द्रियों पर विजय ही विजय दशमी हैं तत्पश्चात् राम राज्य है। यथा-
राम राज बैठे त्रय लोका, हर्षित भये गये सब शोका।।
शोक का कारण मन सहित इन्द्रियों के विचार एवं विकार हैं जो स्वरूप प्राप्ति के साथ सर्वथा निर्मूल हो जाते हैं।
काम, क्रोध कैरव सकुचाने, अघ उलूक जंह तँह लुकाने।।
लोभ मान भय मत्सर चोरा, इनकर हुनर न कपनिहु ओरा।।
भुने हुए दानों में पुनः अंकुरन की सम्भावना नहीं होती है।
अध्यात्मिक पथ पर चलने से भौतिक समृद्धि साये की तरह कभी साथ नहीं छोड़ती केवल भौतिकता की तरफ भागने वाले व्यक्ति अंत में अर्जित उपलब्धि से हाथ धोकर दुःख को प्राप्त होते हैं, संसार में सफलता एवं समृद्धि के साथ जीवन यापन का एक महान सूत्र ऋषियों ने दिया है-
प्रवसि नगर कीजै सब काजा, हृदय राखि कौशल पुर राजा।।
‘कीजै सब काजा’ आपको सम्पूर्ण क्षेत्रों में पूर्ण सफलता मिलेगी। साथ ही प्रभु कृपा के रूप में परम कल्याण भी लेकिन एक शर्त है कि ‘‘हृदय राखि कोशल पुर राजा’’ हृदय में भगवान का स्वरूप पकड़कर परम प्रभु को हृदय में बैठाकर आप प्रत्येक कार्य में सफलता के साथ कल्याण को प्राप्त हो सकते हैं। हमारे हृदय में सदैव प्रभु का निवास रहे इसके लिए नियमित अभ्यास करना होगा, नियमित सुबह शाम नाम जप का अभ्यास हमें स्वरूप तक पहुँचायेगा।
सुमिरिय नाम रूप बिनु देखे, आवत हृदय सनेह विशेषे।।
ऐसा करके आप ऋषियों का तथा उनके उद्देश्य का सम्मान करके अनायास उनके कृपा पात्र बन सकते हैं।